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संघर्ष से सौदेबाजी की ओर अभी भी जारी हैं मायावती के कदम

मुक्त विचार
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बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो मायावती ने इस वर्ष के अन्त में होने वाले त्रिस्तरीय पंचायती राज चुनाव में पार्टी के उम्मीदवार खड़े न करने का फैसला सुना दिया है। इसके पहले उन्होंने लोकसभा चुनाव के तत्काल बाद राज्य में हुए विधानसभा और लोकसभा के उपचुनावों में भी पार्टी की आम राय के विरुद्ध अपना उम्मीदवार न खड़े करने का फैसला थोप दिया था। इसके जो नतीजे आये उन्हें पार्टी के अस्तित्व के संदर्भ में गम्भीर दूरगामी कुप्रभाव के सूचक के तौर पर देखा जा रहा है। इस आधार पर यह कयास लगाये जा रहे थे कि मायावती अब भूल सुधार कर सभी चुनावों में पार्टी की जोर आजमाइश की तैयारी करेंगे। लोकतंत्र में चुनावी संघर्ष में भाग लेना हर पार्टी की जीवंतता और गतिशीलता के लिये जरूरी कसरत की तरह है। इस आम राय के खिलाफ मायावती की अलग धारणा का आधार क्या है यह वे ही जानती होंगी।
यह सही है कि उत्तरप्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार के रहते हुए उसके खिलाफ चुनाव लडऩा बहुत बड़े जोखिम को मोल लेने की तरह है। खासतौर से मायावती के चार बार मुख्यमंत्री बनने के बाद भी उनका आधार वोट सक्षम नहीं बन सका है। जिसकी वजह से सपा शासन में चुनाव की स्थिति में सबसे ज्यादा दमन चक्र में उसे पीसे जाने की आशंका रहती है। मायावती को खतरा महसूस होता है कि अगर उन्होंने यह जानते हुए भी आ बैल मुझे मार की तर्ज पर सपा से उसकी सरकार के समय भिडऩे की कोशिश की तो कहीं ऐसा न हो कि उनके कार्यकर्ताओं की हिम्मत जवाब दे जाये और वे स्थायी रूप से दमनकारी शक्तियों के सामने समर्पण कर दें लेकिन इसका दूसरा पहलू भी है। उपचुनावों में सभी सीटें अनारक्षित थीं जिस कारण मायावती किसी दलित को तो उम्मीदवार बनाती नहीं। वे भी हमेशा की तरह बाहुबली जातियों के बाहुबली उम्मीदवारों को सपा के खिलाफ मोर्चा लेने के लिये उतार देतीं। उसे हराने के लिये अगर सपा उनके मूल वोटरों को एक हद से ज्यादा आतंकित करने की कोशिश करतीं तो बसपा का बाहुबली उम्मीदवार उनके संरक्षण के लिये कोई कसर न छोड़ता। चुनाव के नतीजे भले ही बसपा के पक्ष में न आते लेकिन हर निर्वाचन क्षेत्र में बाहुबलियों और उसकी जाति से सपा की स्थायी खाई बन जाती। इस बात की उम्मीद ज्यादा थी कि बसपा को नुकसान की बजाय इससे फायदा ज्यादा होता। बसपा के चुनाव न लडऩे से पार्टी के अन्दर मूल वोट बैंक में विचलन हुआ है। सपा के लोगों ने बजाय उस वोट बैंक को भयभीत करने के रुपया बांटकर अपने पक्ष में मोड़ा। इससे बसपा के मूल वोट बैंक में जो लत लग गयी है उससे यह आशंका गहरा गयी है कि कहीं ऐसा न हो कि आम चुनाव में भी वह अपने वोट के ज्यादा बड़े खरीददार को तलाशने में जुट जाये। ऐसा हुआ तो बसपा का तो अस्तित्व ही संकट में आ जायेगा।
कुछ महीने पहले तक मोदी के अश्वमेध को तूफानी ढंग से दौड़ते देखकर मुलायम सिंह ने अपनी पार्टी संभालने के लिये उनके खिलाफ एक वृहद मोर्चेबंदी का ताना बाना बुनना शुरू कर दिया था। उसमें जनता दल परिवार के दलों के विलय का प्रस्ताव ही शामिल नहीं था बल्कि बसपा के साथ प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष गठबंधन बनाने की संभावनायें भी टटोली गयी थीं। दिल्ली विधानसभा के चुनाव में जब मोदी को अहसास हुआ कि मुलायम सिंह की कोशिशें उनके प्रभा मंडल में कितनी बड़ी दरार पैदा कर सकती है तो उन्होंने पैंतरा बदला। उनके पौत्र तेजू के तिलक में मुलायम सिंह के पैतृक गांव सैफई में पहुंचकर 40 मिनट का समय देकर उन्होंने उत्तरप्रदेश में राजनीति का नया अध्याय लिखा। इसमें जो सौदेबाजी हुई उसके तहत मुलायम सिंह ने रेलवे बजट की सराहना की और वंदे मातरम् के प्रति अखिलेश सरकार ने मुस्लिम भावनाओं की परवाह न करते हुए श्रद्धापूर्ण अनुरक्ति दिखाई तो बदले में राज्यपाल को कानून व्यवस्था के मुद्दे पर अखिलेश सरकार को बार-बार कटघरे में खड़ा करने से बाज आने के लिये कहा गया।
मुलायम सिंह के निजी प्रभाव और वैभव में वृद्धि का कारण यह है कि उन्होंने धीरे-धीरे अपनी पार्टी में वैचारिक बैरियर खत्म किये। जिससे व्यक्तिगत सुविधा के अनुसार समीकरणों और सिद्धान्तों को बदलने के बावजूद उन्हें कहीं से कोई चुनौती मिलने की गुंजाइश नहीं रह गयी। एक समय वे जबर्दस्त आक्रामकता के साथ मुसलमानों के अहम का पोषण करते थे। आज उन्हें इस बात की परवाह नहीं है कि मुसलमान उनके रंग बदलने से ठगा महसूस कर रहे हैं। उन्हें लगता है कि मुसलमान उनका क्या बिगाड़ लेंगे।
मुलायम सिंह की तरह ही मायावती ने भी मान्यवर कांशीराम के बहुजन मिशन को निजी महत्वाकांक्षा की भेंट चढ़ा दिया है। जाहिर है कि मायावती भी नहीं चाहतीं कि उनकी पार्टी में वैचारिकता के वायरस जीवित रहें। वर्ण व्यवस्थावादी भारतीय जनता पार्टी के मोदी के नेतृत्व में राष्ट्रीय राजनीति में कद्दावर होने से मायावती पर बसपा में दबाव पडऩे लगा था कि वे सामाजिक बदलाव के मूल एजेन्डे पर लौटें ताकि बहुजन समाज को गुमराह करने में भाजपा को मिल रही सफलता से बाबा साहेब अम्बेडकर के सपने और मान्यवर कांशीराम के संघर्ष के पूरी तरह नाकाम हो जाने की जो स्थितियां बन रही हैं उनसे पार पाया जा सके। मायावती ने इस दबाव में अगली बार पिछड़ी जातियों के प्रतिनिधित्व को टिकट के अनुपात में बढ़ाने जैसे संकेत दिये लेकिन यह तनाव को तात्कालिक तौर पर डिफ्यूज करने की कवायद भर थी। मायावती अपनी निरंकुशता को चुनौती देने वाला कोई कारक बचा नहीं रहने देना चाहतीं। विधानसभा आम चुनाव के पहले प्रदेश में हर चुनाव से मुंह मोडऩे के पीछे इसी उद्देश्य को साधने की रणनीति प्रतिबिंबित हो रही है। त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव एक मौका है जिससे जमीनी स्तर पर पार्टी का संगठन मजबूत होता है लेकिन जब संगठन काम करता है तो व्यक्ति की बजाय विचारधारा केन्द्र बिन्दु में स्थापित हो जाती है और निरंकुश नेतृत्व के लिये इससे ज्यादा बड़ी तकलीफ की कोई दूसरी बात नहीं हो सकती। बसपा के त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव न लडऩे से जमीनी स्तर के निकायों में दलाल दलित नेतृत्व पनपेगा जिसे बाबा साहब और मान्यवर कांशीराम दलितों का सबसे बड़ा दुश्मन बताते थे। पर पार्टी में किसकी हिम्मत है जो मायावती को इस बारे में समझाये।

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