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सवर्णों की गरीबी का रोना

मुक्त विचार
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सन् 2011 में बिहार सरकार द्वारा राज्य के सवर्णों की सामाजिक शैक्षणिक स्थिति जानने के लिए गठित आयोग की रिपोर्ट पेश हो गई है जिसे चर्चा का विषय बनाए जाने की कोशिश की जा रही है। इस संदर्भ में की जा रही बौद्धिक कसरत का मकसद यह स्थापित करना है कि सवर्णों की हालत भी उतनी ही दयनीय है जितनी दलितों व कई पिछड़ी जातियों की। सभी जातियों में गरीब हैं जिनकी मदद के लिए आरक्षण की व्यवस्था को जातिगत आधार हटाकर आर्थिक आधार पर लागू करके सुधारा जाए।
खबरें आती रहती हैं कि सारे संसार में अपनी हुकूमत चलाने वाले ब्रिटेन में भी सड़कों पर भीख मांगने वाले नजर आ जाते हैं। इंग्लैंड में भी भिखारी हैं। इस आधार पर उसे उन देशों के समकक्ष गरीब या विकासशील घोषित करने की मांग होनी चाहिए जो अतीत में उन पर रहे ब्रिटेन के औपनिवेशिक शासन की वजह से अपनी समृद्धि और वैभव गंवाकर दीनहीन बन गए थे लेकिन ऐसी शातिर मांग करने का साहस विकसित देशों में, उनका कितना भी वैश्विक प्रभुत्व होते हुए भी जागरूक अंतर्राष्ट्रीय जनमत के कारण नहीं हो सकता पर इस देश का तो चलन ही निराला है। गरीबी यहां भगवान की देन है जिसके कारण कोई व्यक्ति गरीब हो या वर्ग, उसे व्यवस्था बदलने की मांग करने की बजाय अपने कर्म ठीक रखकर अच्छे दिन आने के लिए धैर्यपूर्वक अगले जन्म का इंतजार करना चाहिए। सवर्ण गरीबों को भी सरकारी नौकरी में आरक्षण मिले यह मांग केवल शोशेबाजी है क्योंकि इसमें सवर्णों को भी बहुत दिलचस्पी नहीं है लेकिन आरक्षण व्यवस्था के औचित्य के पीछे जो असल तर्क हैं उनका मट्ठा करने के लिए सवर्ण गरीबों के आरक्षण का शोशा एक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है। सरकारी नौकरी में आरक्षण की भारत में लागू की गई व्यवस्था कई उन्नत देशों में पहले से प्रचलित विशेष अवसर के सिद्धांत से प्रेरित है जहां संस्थागत तौर पर किसी समुदाय को अपनी उन्नति से रोका गया था वहां समानता पर आधारित संविधान लागू होने के बाद वंचित समुदायों को विशेष अवसर के सिद्धांत का लाभ न्यायिक औचित्य के तहत दिया गया। अमेरिका तक में नस्लभेद के कारण पिछडऩे को मजबूर हुए कालों को समकक्ष लाने के लिए सरकारी नौकरियों सहित सभी क्षेत्रों में उनकी आबादी के अनुरूप आरक्षण का प्रावधान किया गया। इसके बावजूद वहां पर इस बात के आंकड़े छांटकर कोई नहीं ला रहा कि गोरों में भी कितनी गरीबी और बेरोजगारी है और इस तरह संस्थागत व ऐतिहासिक कारणों से पिछड़ेपन की ओर ढकेले गए कालों के प्रति वहां की सरकार की संवेदना व दायित्व के छीजने की हरकत की जाए। दूसरे आरक्षण के साथ यह उद्देश्य भी जुड़ा हुआ है कि सफल लोकतंत्र के लिए सभी समुदायों को सत्ता के केेंद्रों में समुचित भागीदारी को सुनिश्चित किया जाए। अनुसूचित जाति व जनजातियों के लिए आरक्षण के इतने वर्षों से चले आ रहे प्रावधान के बावजूद आज खबर यह है कि भारत सरकार के चौरासी सचिवों में इन वर्गों से मोदी सरकार को एक भी आईएएस अफसर ढूंढे नहीं मिल पाया है। मोदी के मंत्रिमंडल में भाजपा कोटे से अनुसूचित जाति का कोई वरिष्ठ मंत्री न होना और इस सरकार द्वारा नियुक्त राज्यपालों में इस वर्ग का प्रतिनिधित्व न हो पाना संयोग मात्र नहीं है। हालांकि यह बात सही है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी वंचित के रूप में चिह्निïत समुदाय से ही आए हैं और उदारता दिखाते हुए संघ ने उनको देश के सर्वोच्च कार्यकारी पद के लिए चुना है लेकिन सभी जानते हैं कि यह उदारता दिखावटी है। यह इसलिए किया गया है कि वैश्विक परिदृश्य के कारण भारतीय समाज में सामाजिक न्याय को लागू करने की जो बाध्यता उपस्थित है उसमें वंचितों के बीच से महत्वपूर्ण पदों के लिए ऐसे मोहरे तलाशना है जो कि अपनी संस्कारगत कमजोरियों की वजह से अंततोगत्वा वर्ण व्यवस्था को बल प्रदान करने वाली प्रक्रियाएं लागू करने के लिए स्वत: प्रेरित रहें। तथाकथित भारतीय धार्मिक सांस्कृतिक विचार ऐसी धारणाओं को पोषित करते हैं जो यह विश्वास जमाती हैं कि योग्यता और योग्यता जन्मना है जिसकी वजह से वर्ण व्यवस्था के विधान में तिरस्कृत किए गए समुदाय के लोगों को उच्च पद देने में जोखिम है। क्या मोदी सरकार इसी तरह की धारणाओं से प्रेरित होकर उच्च पद पर आसीन करने के मामलों में दलितों की क्षमताओं के प्रति शंकालु है।
अतीत में भी इस तरह के उदाहरण मौजूद हैं जब वर्ण व्यवस्था के कर्णधारों ने अभिशप्त समुदायों के लोगों का तात्कालिक तौर पर राजा के रूप में वरण किया लेकिन यह अंतरिम विवशता काल जैसे ही समाप्त हुआ और वर्ण व्यवस्था फिर मजबूती से बनती तो और ज्यादा कठोरता से यह सुनिश्चित किया गया कि भविष्य में उस समुदाय का कोई व्यक्ति सदियों तक इतना आगे न बढ़ पाए कि शीर्ष पद पर कबूलना उसे मजबूरी बन जाए। सवर्णों में भी गरीबी है। यह एक अलग मुद्दा है। इस यथार्थ को सारा संसार जानता है क्योंकि जीडीपी दर के आधार पर जब किसी देश की वास्तविकता का संतुष्टकारी मूल्यांकन नहीं हो पा रहा था तो खुशहाली सूचकांक के रूप में नया पैमाना लाया गया जिसकी रैंकिंग में भारत को पाकिस्तान और बंगलादेश से भी पीछे पाया गया है। जब समूचा भारत ही असंतृप्त है तो सवर्णों के बहुमत की हालत भी गईगुजरी होगी यह तो स्वयंसिद्ध तथ्य है लेकिन सवर्णों की दीनदशा के पीछे कोई संस्थागत कारण नहीं है। आर्थिक क्षेत्र में जिसकी लाठी उसकी भैंस का जंगलराज उदारीकरण की नीतियों से कायम हो गया है जिसमें हर जाति वर्ग का ईमानदार आदमी पिसा जा रहा है। गरीबी के आधार पर सवर्णों को आरक्षण देने का कदम एक फरेब होगा क्योंकि आय का प्रमाण पत्र किसी गरीब सवर्ण के लिए बनवाना बेहद मुश्किल है जबकि संपन्न सवर्ण के लिए कम आय का प्रमाण पत्र हथियाना बांए हाथ का खेल है। अभी भी गरीबों के लिए जो योजनाएं लागू हैं उनका लाभ यथार्थ में गरीबों को बहुत कम मिल पा रहा है। दूसरे सवर्णों में जातिवाद अयोग्य लोग सबसे ज्यादा फैलाते हैं क्योंकि उन्हें अपनी क्षमताओं पर भरोसा नहीं होता। तीन तिकड़म करके ऐसे लोग किसी अधिकार के पद पर बैठने के बाद अपनी ही जाति में से उन लोगों को आगे बढ़ाते हैं जो उनकी स्वार्थ पूर्ति करते हों। इस तरह सवर्ण जातिवाद एक ऐसा सिलसिला बन गया है जिसके कारण सक्षम सवर्णों के लिए आगे बढऩा मुश्किल है। दूसरे शब्दों में कहा जाए कि सक्षम और योग्य सवर्ण वंचित जातियों की वजह से नहीं पिछड़ रहे बल्कि अपने ही समाज की खरपतवार उनके रास्ते की रुकावट सिद्ध हो रही है। शेयर बाजार जैसी बाजीगरी व्यवस्थाओं वाली आर्थिक नीतियों का जनवादी विकल्प गरीबी की समस्या का सच्चा समाधान है। यह न करने के लिए भी गलत व्यवस्था के शिकार सवर्णों को आरक्षण का लालीपाप थमाकर बहलाने की कोशिश की जा रही है जिसका विरोध होना चाहिए।

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