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सिल्वर जुबली सम्मेलन के बाद सपा, मर्ज बढ़ता गया ज्यों-ज्यों दवा की

मुक्त विचार
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शनिवार को समाजवादी पार्टी की स्थापना का बहुप्रतीक्षित सिल्वर जुबली समारोह लखनऊ के जनेश्वर मिश्र पार्क मैदान में आयोजित किया गया। इस सम्मेलन में क्या होता है उत्तर प्रदेश के आम लोगों को भी यह देखने का बेहद इंतजार था। मंच पर अखिलेश ने सीएम के रुतबे की केंचुल उतारकर संस्कारी भतीजे का स्वरूप तब दिखाया जब लालूप्रसाद यादव ने उनका और शिवपाल यादव का हाथ अपने हाथ में लेकर मिलवाने की कोशिश की जिसके बाद अखिलेश ने चाचा से हाथ मिलाने की बजाय उनका हाथ अपने सिर पर रखा और शिवपाल यादव के पैर छू लिए। शिवपाल यादव की बॉडी लैंग्वेज अखिलेश की इस अदा के बाद ऐसी नजर आई जैसे उन पर इतना प्रभाव पड़ा हो कि वे कुछ दिनों से भतीजे से चली आ रही सारी तल्खी भूलकर उऩके लिए बेहद भावुक हो गए हों। लेकिन यह आंकलन उन्हों कुछ ही देर में गलत साबित कर दिया।
सबसे पहले स्वागत भाषण शुरू करते हुए शिवपाल ने अखिलेश को जब आईना दिखाने की कोशिश की तो कुछ देर पहले बने सुखद माहौल को तार-तार होते देर नहीं लगी। शिवपाल ने एक बार फिर दोहराया कि कुछ लोगों को बिना कुछ किए विरासत में सब कुछ मिल जाता है जबकि कुछ लोग जीवन भर मेहनत करने के बावजूद अपना प्राप्तव्य हासिल नहीं कर पाते। उन्होंने कहा कि अगर सीएम अखिलेश ने बहुत अच्छा काम किया है तो उन्हें जो विभाग सौंपे गए थे उनमें भी ऐतिहासिक काम हुआ है। इसके बावजूद बार-बार बर्खास्त करके उन्हें अपमानित किया गया। हालांकि उऩका कितना भी अपमान हो पर वे पार्टी और अखिलेश की सरकार को मजबूत करने के प्रयासों में कोई कमी नहीं आने देंगे। लेकिन अखिलेश के खिलाफ इसके बावजूद मोर्चाबंदी जारी रखने का आभास कराते हुए उन्होंने यह बात भी एक बार फिर से कह दी कि नेताजी का अपमान बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। यह पहले ही स्पष्ट हो चुका है कि नेताजी के सम्मान-अपमान के नाम पर वे अखिलेश समर्थकों के आखेट का प्रयोजन साधे हुए हैं और इसको आगे भी जारी रखेंगे। परिवार और पार्टी में वर्चस्व को लेकर हो रहे शक्ति परीक्षण के थम न पाने के आभास के चलते सिल्वर जुबली सम्मेलन में एक बार फिर यह बात साफ हो गई है कि विधानसभा चुनाव के टिकट वितरण के समय समाजवादी पार्टी में कई जटिल स्थितियां पैदा होंगी। मुलायम सिंह के सामने इसमें बड़ा धर्मसंकट होगा जिन्हें अपने बेटे का भविष्य सुरक्षित रखने की लालसा भी है और भाई को साधे रखने की भी। अभी तक वे भाई के लिए ज्यादा परवाह की मुद्रा साधे हुए हैं जिसे तमाम राजनीतिक प्रेक्षक उनका रणनीतिक पैंतरा मान रहे हैं लेकिन विधानसभा चुनाव के समय उनको अपना हिडिन एजेंडा छोड़कर निर्णायक रुख प्रदर्शित करना होगा और हो सकता है कि तब पार्टी बेहद विस्फोटक स्थितियों से दो-चार होती नजर आए।
समाजवादी पार्टी द्वारा कुछ महीने पहले तक विधानसभा चुनाव अकेले ही लड़ने का दम भरा जाता रहा है और व्यवहारिक तौर पर इस मामले में उसके दंभ को जायज भी ठहराया जा सकता है क्योंकि सपा का चुनाव में जो कुछ होना है अपने कारणों से होगा, कोई तथाकथित सहयोगी दल न तो चुनाव में उसे कोई बड़ी मदद दे सकता है और न नाराज होकर उसका कोई बड़ा नुकसान कर सकता है। फिर भी समाजवादी पार्टी अचानक सिल्वर जुबली सम्मेलन के मंच पर महागठबंधन का नक्शा खींचने को उत्सुक हो गई। इसे एक पहेली से कम नहीं माना जा रहा। साम्प्रदायिक शक्तियों को उत्तर प्रदेश में सत्ता में आने से रोकने के नाम पर सिल्वर जुबली सम्मेलन के अवसर पर इसलिए समानधर्मी दलों का कुनबा जोड़ा गया जिसे जनता दल परिवार की एकता का नाम देने की बजाय लोहिया और चौधरी चरण सिंह को मानने वालों को एक मंच पर लाने का उपक्रम घोषित किया गया। समाजवादी पार्टी को जनता पार्टी के नाम से क्या कॉम्पलेक्स है, यह सभी जानते हैं। बहरहाल यह कुनबा वाकई में भाजपा के हौवे को पस्त करने के प्रयोजन से जोड़ा गया था या इसके पीछे सपा की अंदरूनी उठापटक में एक पक्ष द्वारा अपनी बढ़त का मनोवैज्ञानिक प्रभाव पैदा करने का पैंतरा था, यह भी एक बड़ा सवाल है।
मुलायम सिंह यादव बहुत कम उम्र में 1967 में पहली बार एमएलए बने थे। जबकि इसी वर्ष डा. लोहिया का निधन हो गया था। इस तरह से देखें तो लोहिया और मुलायम सिंह के बीच अलग से अंतरंग सम्बंध उस समय तक बन गए होंगे इस बात की कोई गुंजाइश नजर नहीं आती लेकिन मुलायम सिंह ने हाल के अपने भाषणों में यह जाहिर करने की कोशिश की है कि जैसे उस समय तक लोहिया उनसे विचार-विमर्श करके या उनकी सलाह से प्रभावित होकर फैसला लेने लगे थे। अपने महत्व को अजीबोगरीब ढंग से जताने का यह रोग सिर्फ मुलायम सिंह को ही नहीं लगा शिवपाल यादव भी इस दिशा में अपनी ब्रांडिंग में कोई कसर नहीं छोड़ रहे। सही बात तो यह है कि 1989 में मुलायम सिंह के मुख्यमंत्री बनने के पहले तक शिवपाल यादव की राजनीति में कोई पहचान नहीं थी लेकिन आजकल वे दावा कर रहे हैं कि नेताजी के साथ 1972 से वे सक्रिय हो गए थे और उन्होंने एक अलग वजूद बनाकर नेताजी की राजनीति को मजबूत करने में बड़ा योगदान दिया था। समाजवाद को अपने परिवार के राजनीतिक साम्राज्य का पर्याय बनाने की इस कवायद में और तेजी पैदा कर रहे मुलायम सिंह यादव के नये-नवेले रिश्तेदार राजद प्रमुख लालूप्रसाद यादव, जिन्होंने एक समय प्रधानमंत्री पद पर मुलायम सिंह को पहुंचने से रोकने के लिए सारी ताकत झोंक रखी थी। पर आज वे कहते हैं कि उत्तर प्रदेश में धर्मनिरपेक्ष दलों को अपने उम्मीदवार खड़े करने की क्या जरूरत है। सभी को समाजवादी पार्टी की बिना शर्त चुनाव में मदद करके अपना धर्म निरपेक्ष कर्तव्य निभाना चाहिए। बहरहाल रिश्तेदारी के बाद उनकी और मुलायम की माया एक हो चुकी है इसलिए वे अपनी दुकानदारी रिश्तेदार की फर्म को आगे बढ़ाने के लिए बंद कर सकते हैं लेकिन दूसरे दल सपा के लिए ऐसा त्याग क्यों करें।
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अपनी पार्टी जद यू के लिए उत्तर प्रदेश में भी जगह बनाने की कोशिश के तहत कई महीनों से अभियान छेड़े हुए हैं इसलिए सपा के महागठबंधन के स्वर पर एकदम न्योछावर हो जाना उन्हें स्वीकार नहीं है। छठ पूजा के बहाने समाजवादी पार्टी के सिल्वर जुबली सम्मेलन से उन्होंने अपने को अलग रखा लेकिन शरद यादव इस सम्मेलन में उनकी मर्जी के बिना पहुंच ही गए। मुलायम सिंह ने राजनीति का बितान बहुत संकीर्ण बना दिया है इसके तहत अब दल और विचारधारा की बजाय एक परिवार व एक जाति के सत्ता पर जन्मसिद्ध अधिकार को स्थापित करने की राजनीति चल पड़ी है। मुलायम सिंह यादव और शरद यादव के बीच एक समय अदावत किस सीमा तक बढ़ गई थी, यह किसी से छिपा नहीं है। लेकिन अब शरद यादव भी लालू की तरह समाजवादी पार्टी के हित की परवाह आत्मविस्मृति की नियति स्वीकारने के साथ कर रहे हैं तो इसे लहू पुकारेगा का अंदाज ही कहा जाएगा। लालू और शरद के बीच में भी किस सीमा तक झगड़ा हो चुका है यह सर्वविदित है। लेकिन कौन सा आधार है जो एकाएक मुलायम, शरद और लालू के एक धरातल पर खड़े होने का सबब बन गया है, इसे कहने की जरूरत नहीं है।
जहां तक अजीत सिंह का प्रश्न है उनके बूते अपनी दम पर कुछ कर पाने की स्थिति रह नहीं गई जिससे वे किसी न किसी बैसाखी का सहारा पाने को बेताब हैं। समाजवादी पार्टी के प्रति उनके अचानक तरल हो उठने की यही वजह है लेकिन अजीत को भी सपा के लिए बलिदान हो जाना मंजूर नहीं हो सकता। इसलिए लालू का सुझाव उन्हें रास आने से रहा। महागठबंधन की कल्पना बिहार के उदाहरण से सामे आई है तो कांग्रेस को को भी इसका हिस्सा बनाने की बात सपा के रणनीतिकारों के दिमाग में है लेकिन सहयोगी दलों के लिए 75-100 सीटें छोड़ने का कलेजा समाजवादी पार्टी दिखा पाएगी इसमें पर्याप्त संदेह है। इसलिए महागठबंधन शिवपाल का अंदरूनी राजनीति में बढ़त पाने का शोशा भर माना जा रहा है। तो इसमें विचित्र क्या है। सपा के सिल्वर जुबली सम्मेलन में हुए प्रदर्शन को हजम करना उत्तर प्रदेश के आम अवाम के लिए आसान नहीं है क्योंकि उलटी परम्पराएं रोकने के नाम पर अभी तक उदासीन रहने की आदत की वजह से आम अवाम ने लोकतंत्र के जिस नुकसान को महसूस करना शुरू कर दिया है उसके परिप्रेक्ष्य में आम जनमानस में बेचैनी है और यह बेचैनी अमूर्त नहीं रहेगी बल्कि इसका उत्तर प्रदेश की राजनीतिक दिशा को बदलने में कुछ न कुछ क्रियात्मक रूप जरूर ही देखने को मिलेगा।

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