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कार्टून से ढहता लोकतंत्र और महापुरुषों की गरिमा

बोल कि लब आजाद हैं...
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एनसीईआरटी की किताब में छपे एक कार्टून को लेकर जिस तरह का नासमझी भरा विवाद हुआ, वह किसी भी लोकतांत्रिक देश के लिए बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है। इस मसले पर संसद से लेकर सड़क तक की बहसें किसी को भी विचलित करने वाली हैं। हद तो तब हो गयी जब आम्बेडकर के कार्टून से दो हाथ आगे बढ़ पुरे पाठ्यक्रम में शामिल कार्टूनों पर सवाल उठाया गया. नेताओं का तर्क है कि कार्टूनों को किताब में शामिल करना और उसपर  छात्रों की राय माँगा देश को तानाशाही और अराजकता की और ले जायेगा. दुर्भाग्य है कि बड़े नेताओं ने भी इस असंगत बहस में सुर मिलाया, जिनसे ऐसी उम्मीद कटाई नहीं थी. जिन विद्वानों ने मिलजुल कर उस किताब को लिखा है, यदि उनका पक्ष और उनकी चिंताओं को दरकिनार भी कर दिया जाए और सिर्फ एक नागरिक की तरह सोचा जाए तो भी ये घटनाएं किसी को चिंता में डालने के पर्याप्त हैं। एक लोकप्रिय विधा को लेकर जिस तरह की घटनाएं और असंगत बहसें नुमायां हुईं, वह न तो वाजिब है और न ही किसी भी कोण से तर्कपूर्ण। असल में बात एक कार्टून से कहीं आगे तक जाती है। खासकर तब, जब पाठ्यक्रम में शामिल इन कार्टूनों के उद्देश्य साफ कर दिए गए हों।
यह बात एकदम महत्व की नहीं है कि वह कार्टून कब बना और कब उस पर विवाद शुरू हुआ। महत्व की बात तो यह है कि ऐसी घटनाओं को अंजाम दिए जाने के पीछे क्या मंशा हो सकती हैं। क्या वास्तव में वह कार्टून बाबा साहेब आंबेडकर का अपमान करता है और जिन लोगों को उसके लिए दोषी कहा जा रहा है, क्या उनकी प्रतिबद्धताओं को भी परखने की कोई कोशिश हुई। कार्टून पर विवाद के शुरू होते ही मानव संसाधन विकास मंत्रालय की पाठ्यक्रम विकास समिति के सदस्य प्रो सुहास पलशीलकर और समिति के सलाहकार योगेंद्र यादव ने विरोध स्वरूप इस्तीफा दे दिया। कार्टून पर हंगामा करने वाले लोगों और समिति के इन सदस्यों पक्ष सुनकर स्थिति का अंदाजा लगाया जा सकता है कि वास्तव में यह किसी महापुरुष की गरिमा का मसला न होकर उन मूल्यों का ही अपमान है, जिनकी सुरक्षा की बात कहकर पूरा विवाद खड़ा किया गया है।
बात सिर्फ कार्टून का विरोध करने तक नहीं थमी, अगले ही दिन पुणे में सुहास पलशीलकर के दफ्तर में कुछ लोगों ने हमला कर तोड़फोड़ किया। इसकी प्रतिक्रिया में शांत स्वभाव योगेंद्र यादव ने अपने चिरपरिचित अंदाज में कहा कि पलशीलकर ने अपने पूरे अकादमिक कैरियर में लोगों को आंबेडकर के बारे में सिखाया है, खुद मेरे लिए वो आंबेडकर को सिखाने वाले गुरु समान हैं। ऐसे व्यक्ति पर आंबेडकर के नाम पर कुछ अनपढ़ लोग हमला करें, इससे दुर्भाग्यपूर्ण बात और क्या हो सकती है।
इस पूरे प्रकरण में सांसदों की प्रतिक्रिया पर योगेंद्र यादव की टिप्पणी गौर करने वाली है कि ‘‘सांसदों ने नासमझी का परिचय दिया, कि जिस किताब ने आंबेडकर को स्थापित करने की कोशिश की, उस पाठय पुस्तक को आंबेडकर विरोधी करार दिया है। बिना एक शब्द पढ़े किसी चीज के बारे में राय व्यक्त की, यह सब सांसदों और संसद की गरिमा के अनुरूप नहीं है और मुझे यकीन है कि इस भेड़चाल से मुक्त होकर हमारे देश की संसद कुछ बेहतर सोचेगी।‘‘ असली चिंता की बात यही है कि क्या हमारी संसद और हम कुछ बेहतर सोंचेंगे।
पलशीलकर पर हमले के ठीक एक दिन बात संसद अपनी गरिमा और लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति खासी चिंतित दिखी और सदस्यों ने शपथ ली कि वे देश की संसद और उसकी लोकतांत्रिक गरिमा की सुरक्षा करेंगे। जबकि, इस चिंता में कितनी गंभीरता है, यह एक दिन पहले ही साबित हो चुका था और उसके पहले भी, जब कोलकाता में एक कार्टून को लेकर एक प्रोफेसर को जेल की हवा खानी पड़ी। लगातार हम असहिष्णुता की खतरनाक प्रवृत्ति को फलता-फूलता देख रहे हैं।
सामाजिक विज्ञान की जिस पुस्तक में शामिल कार्टून पर विवाद है, उसके अलावा पाठ्यक्रम की अन्य किताबों में भी यह विधा शामिल की गई है। सब में हर अध्याय को समझाने और उसमें निहित संदेशों को एक तार्किक परिणति तक पहुंचाने के लिए इन कार्टूनों का सहारा लिया गया है। इसके अलावा पाठ्यक्रम में दो चरित्र उन्नी-मुन्नी हैं, जो हर बात पर गंभीर सवाल खड़ा करते हैं। उन्नी-मुन्नी के हर सवाल काफी असहज करने वाले हैं। उन सवालों के वहां मौजूद होने का सीधा अर्थ है कि पाठ्यक्रम में जिज्ञासा और बहस की गुंजाइश का भरपूर ख्याल रखा गया है। दर्जनों कार्टूनों और इन सवालों की मदद से किताब को एक तार्किक स्वरूप देने की कोशिश की गई है। किताब में गांधी, नेहरू, पटेल, आंबेडकर और इंदिरा गांधी सहित उस समय के सभी बड़े नेताओं और घटनाक्रमों पर कार्टून हैं। कार्टून विधा और उसके महत्व के बारे में चर्चा करने का कोई तुक नहीं है, क्योंकि वह पहले से स्थापित है। पाठ्यक्रम की अन्य किताबों भी यही शैली अपनाई गई है। ‘‘भारत का संविधानः सिद्धांत और व्यवहार‘‘ शीर्षक की किताब की भूमिका में इस बारे में लिखा गया है कि ‘‘इन कार्टूनों का उद्देश्य महज हंसना-गुदगुदाना नहीं है। ये कार्टून आपको किसी बात की आलोचना, कमजोरी और संभावित सफलता के बारे में बताते हैं। हमें आशा है कि इन कार्टूनों का मजा लेने के साथ-साथ आप इनके आधार पर राजनीति के बारे में सोचेंगे और बहस करेंगे।‘‘ दुर्भाग्य से यह उद्देश्य पूरा होता नहीं दिख रहा।
इसी तरह सरकार की शक्ति और सीमाओं पर चर्चा करते हुए किताब में उन्नी का यह सवाल देखें कि ‘‘इसका मतलब यह कि पहले आप एक राक्षस बनाएं और फिर खुद को उससे बचाने की चिंता करें। मैं तो यही कहूंगा कि फिर राक्षस जैसी सरकार को बनाया ही क्यों जाय।‘‘ क्या इस सवाल का उद्देश्य सरकार या संविधान का मखौल उड़ाना हो सकता है। जाहिर है, नहीं। और यह विवाद उन किताबों को बिना देखे पढ़े खड़ा किया गया जिस पर संसद ने न सिर्फ संज्ञान लिया, बल्कि देश से माफी भी मांग ली। यह हमारी राजनीति और सामूहिक मेधा का कमजर्फ नजरिया है, जो एक शुभ उद्देश्य को नकारता है और हमें संकीर्णता की ओर ले जाता है। इस प्रकरण सहित किसी भी किताब, फिल्म या अन्य किसी भी रचना पर संसद सदस्यों और बुद्धिजीवियों का मौन खतरनाक संकेत है। हमारे इस मौन से उस असहिष्णुता को बढ़ावा मिलेगा जो विचारों का गला घोंटने को हमेशा तैयार रहती है। योगेंद्र यादव की टिप्पणी सटीक है कि इस तरह की घटनाएं ‘‘न सिर्फ हमारी असहिष्णुता, बल्कि राजनीतिक निरक्षरता का भी परिचय है। कल तक जो आरएसएस या बीजेपी वाले करते थे, अब वहीं आंबेडकर के नाम पर हो रहा है।‘‘ विचारों की स्वतंत्रता के लिए छीजती जगह को सुरक्षति करने के लिए हमें सड़क पर आकर खड़ा होना होगा।

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