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सरकारें और सत्ताधीश जनता के प्रति किस कदर असंवेदनशील हो सकते हैं, यह आप योजना आयोग के ताजा आंकड़ों से आसानी से समझ सकते हैं। आम जनता को हलकान कर देने वाली महंगाई लगातार बढ़ रही है और केंद्र की संप्रग सरकार इसे दस साल तक सत्ता में रहकर नियंत्रित नहीं कर सकी। यह उसके लिए कोई मुद्दा भी नहीं।
उस पर तुर्रा यह कि उसने गरीबी पर ताजा आंकड़े जारी करके गरीब जनता का मजाक उड़ाया है। जब इस आंकड़ेबाजी पर सरकार की किरकिरी होने लगी तो कुछ नेताओं ने निर्लज्ज तरीके से उसे जायज ठहराने की कोशिश की।
केंद्रीय योजना आयोग ने गरीबी पर जो आंकड़े जारी किए हैं वे बड़े दिलचस्प और हास्यास्पद हैं। सरकार ने लोगों की आय संबंधी आंकड़ों में हेरफेर करके देश से 17 करोड़ गरीब कम होने का दावा कर डाला। लोगों की आय की तय सीमा में एक रुपये की बढ़ोत्तरी करके योजना आयोग ने यह कारनामा किया है। इससे सरकार के आंकड़े में जितने लोग गरीब थे, उनमें 15 फीसद की कमी दर्ज की गई। आयोग की नई परिभाषा के तहत अब गांवों में हर दिन 26 रुपये की जगह 27.20 रुपये कमाने वाला आदमी गरीब नहीं माना जाएगा। इसी तरह शहरों में 32 रुपये की जगह 33.30 रुपये से ज्यादा कमाने वाला गरीब नहीं कहा जाएगा। यानी गांव में प्रति महीने 816 रुपये और शहरों में 1000 रुपये से ज्यादा कमाने वाले लोग गरीब नहीं हैं। इस तरह नये आंकड़ों के अनुसार देश में अब 22 फीसद लोग ही गरीब रह गए हैं।
सरकार का मानना है कि मनरेगा जैसी योजनाओं में अगर हर महीने कोई व्यक्ति दस दिन का रोजगार भी पा जाता है तो वह गरीबी रेखा के दायरे से बाहर है। यह नई गरीबी रेखा भी उसी तेंदुलकर समिति के फार्मूले पर तय हुई है जिसके तहत दो साल पहले सितंबर 2011 में गांव में रहने वालों के लिए 26 रुपये और शहरों में रहने वालों के लिए न्यूनतम 32 रुपये प्रति दिन की आमदनी तय की गई थी। हालांकि, उस समय इन आंकड़ों पर चौतरफा तीखी प्रतिक्रियाओं और आलोचनाओं के बाद सरकार ने खुद ही इस फार्मूले को खारिज कर दिया था। अब उसी फार्मूले पर यह नया आंकड़ा जारी हुआ है।
जहां तक बात गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों की संख्या की है तो यह भी अपने आप में विवादास्पद ही है कि भारत में कितने लोग गरीबी रेखा से नीचे रह रहे हैं। इससे पहले योजना आयोग और एनसी सक्सेना समिति तथा सुरेश तेंदुलकर समिति गरीबों की संख्या से संबंधित विरोधाभासी आंकड़े पेश कर चुके हैं। इन रिपोर्टों से साफ है कि हमारे पास वास्तव इस संबंध में कोई आधिकारिक और सही आंकड़े नहीं हैं, जिनके आधार पर गरीबी उन्मूलन के लिए नीतियां तय की जा सकें। विभिन्न समितियों की इन रिपोर्टों के होने की सुविधा यह है कि नीतियां तैयार करने में सुविधाजनक आंकड़ा उपयोग में लाया जा सकता है। अभी तक यह स्पष्ट नहीं है कि सरकार उस 76 प्रतिशत जनता को गरीब मानती है, जो 20 रुपये प्रतिदिन पर गुजारा कर रही है, या फिर उस तेंदुलकर समिति की रिपोर्ट को, जो 50 प्रतिशत जनता को गरीब मानती है, या फिर योजना आयोग की रिपोर्ट को, जो मात्र 36 प्रतिशत लोगों को गरीब मानकर अपनी नीतियां कर रहा है? अब सरकार ने इसी तेंदुलकर समिति की रिपोर्ट के मुताबिक 36 प्रतिशत गरीबों का आंकड़ा 15 प्रतिशत कम कर लिया है।
जून 2012 में प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के चेयरमैन सी. रंगराजन की अध्यक्षता में गरीबी रेखा का नया फार्मूला तय करने के लिए एक विशेषज्ञ समूह गठित किया था। लेकिन चुनाव नजदीक देखकर सरकार ने उसकी रिपोर्ट का इंतजार नहीं किया, क्योंकि यह रिपोर्ट अगले साल के मध्य तक आएगी। इसलिए सरकार ने गरीबी कम करने की अपनी उपलब्धि प्रचारित करने के लिए तेंदुलकर फार्मूले में ही फेरबदल कर नई गरीबी रेखा तय कर दी। योजना आयोग ने यह नई गरीबी रेखा 2011-12 की कीमतों के आधार पर तय की है। इसमें कहा गया है कि गांव में रहने वाला पांच सदस्यीय परिवार यदि रोजाना 136 रुपये या महीने में 4080 रुपये कमाता है तो वह गरीब नहीं माना जाएगा। इसी तरह शहर में 166.5 रुपये रोजाना या 5000 रुपये महीने कमाने वाला पांच सदस्यीय परिवार गरीब नहीं माना जाएगा।
योजना आयोग का मानना है कि देश में हर साल दो फीसदी से अधिक की दर से गरीबी कम हो रही है। नये आंकड़ों में गरीबी घटने की दर 2004-05 से 20011-12 के बीच सात वर्षों में तीन गुना हो गई है। गरीबों की संख्या को लेकर सरकार ने 2009-10 में भी अनुमान लगाया था और 2012 में घोषणा की थी कि देश में करीब 30 फीसद लोग गरीब हैं।
इन विरोधाभासी आंकड़ों के बीच कांग्रेस नेता राज बब्बर ने कह डाला कि 12 रुपये में भर पेट खाना खाया जा सकता है। एक और कांग्रेसी नेता रशीद मसूद ने कहा, कि पांच रुपये में दिल्ली में भर पेट खाना खाया जा सकता है। हद तो तब हो गई जब शुक्रवार को फारूक अब्दुल्ला ने कह दिया कि एक रुपये में भी पेट भरा जा सकता है।
इस तरह की आंकड़ेबाजी और उस पर इस तरह की बयानबाजी क्या उस गरीब जनता के साथ मजाक नहीं है जो दो जून की रोटी के जुगाड़ से जूझते हुए ही अपना जीवन बिता रही है? आश्चर्य है कि इस देश मे अब तक यह तय हो पाया है जीवन जीने की न्यूनतम आवश्यकता क्या है।
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