बोल कि लब आजाद हैं...
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पीड़ा यह न जाने कैसी
रग-रग में यूं दौड़ रही है
रोम-रोम दुखता है जैसे
कोई खंजर घोंप रहा हो
बरसों का प्यासा वजूद ज्यों
कतरा-कतरा बीत रहा हो
क्या छूटा है, क्या टूटा है
भीतर-भीतर क्या उट्ठा है
बोझिल सांसें डूब रही हैं
सब वजूद रह-रह दुखता है
जो खोया है वो लौटा दो
मेरा चांद कहीं से ला दो
कौन सी मेरी राहगुज़र है
किधर चलूं मैं, यह बतला दो
कहां गए तुम सब कुछ लेकर
मेरे हमनफस, मेरे रहबर
मेरा दामन फिर महका दो
जिन सांसों से लदा हुआ था
मुझ पर वो फिर से बिखरा दो
ख़ाली-ख़ाली दामन में फिर
ख्वाबों की लड़ियां पहना दो
पीड़ा यह न जाने कैसी
रग-रग में यूं दौड़ रही है…
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