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महिला उत्पीड़न के सवाल

बोल कि लब आजाद हैं...
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दिल्ली महिला आयोग ने घर के भीतर होने वाले महिला उत्पीड़न के जो आंकड़े पेश किए हैं, वे वाकई चिंताजनक हैं। आयोग ने एक महीने के भीतर आई शिकायतों के आधार पर आंकड़े पेश किए हैं। महीने भर में आई कुल शिकायतों में एक सौ छह मामले ऐसे हैं, जिनमें महिलाओं के साथ पतियों ने मारपीट अथवा शारीरिक उत्पीड़न किया है। इसके अलावा सत्ताईस मामले दहेज उत्पीड़न के हैं, जबकि पच्चीस भावनात्मक उत्पीड़न के। तैंतीस मामले ऐसे हैं, जिनमें ऐसे नजदीकी रिश्तेदारों और पड़़ोसियों ने उत्पीड़न किया है, जिन पर महिलाएं विश्वास करती थीं। इन उत्पीड़नकारियों की फेहरिश्त में पुलिस भी शामिल है, जो महिलाओं की शिकायतों पर गौर तो नहीं करती, उल्टे उन्हें अपमानित करती है। यह हाल देश की राजधानी का है, तो बाकी देश में क्या हाल होगा, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है।
महिलाओं को सुरक्षा और न्याय दिला पाने का पुलिस का रिकार्ड तो जगजाहिर है। दो दिन पहले का ही मामला है, जब एक लड़की ने थाने में जाकर शिकायत की, कि उसके शिक्षक ने तीन साल तक बहला-फुसलाकर उसका शारीरिक शोषण किया और जब उसने शादी की बात कही तो वह मुकर गया। पुलिस ने लड़की को थाने से भगा दिया और आरोपी शिक्षक की आवभगत की। इस बर्ताव से आहत लड़की ने जहरीला पदार्थ पीकर खुदकु्शी कर ली।
सवाल यह है कि जब हम ही अपनी ही घर की महिलाओं को भावनात्मक और शारीरिक सुरक्षा नहीं दे पा रहे, तो पुलिस यह सब क्यों करने लगी? समय-समय पर बलात्कार जैसी घटनाओं के लिए महिलाओं को ही जिम्मेदार ठहराकर पुलिस महिला सुरक्षा के प्रति अपनी संवेदनशीलता और सोच का प्रमाण देती रहती है कि बलात्कार की घटनाओं के लिए खुद महिलाएं और उनका पहनावा जिम्मेदार है। या फिर, रात को घर से बाहर निकलकर, भड़कीले वस्त्र पहनकर वे खुद ऐसी घटनाओं को आमंत्रित करती हैं आदि। आखिर पुलिस और प्रशासन में तैनात लोग भी इसी समाज के तो हिस्से हैं, जहां लोग दहेज पाने जैसी कुत्सित बातों के लिए अपनी ही औरतों को न सिर्फ प्रताडि़त करते हैं, बल्कि उनकी जान तक ले लेते हैं!
पिछले सप्ताह गुड़गांव में एक साल की बच्ची की मां ने बहुमंजिला इमारत की खिड़की से कूद कर जान दे दी, क्योंकि उसका पति चाह रहा था कि पत्नी उसके बिजनेस शुरू करने के लिए अपने मायके से दस लाख रुपये लाकर दे। महिला इस बात से इन्कार कर रही थी और पति इस बात के उससे झगड़ा कर रहा था। बात इतनी बढ़ गई कि महिला के भाई को बीच-बचाव के लिए आना पड़ा, लेकिन सुलह-समझौता फिर भी नहीं हो सका और जब रात को सभी सो रहे थे, महिला घर की खिड़की से नीचे कूद गई। जाहिर है, परिस्थियां उसे अपने जीने के अनुकूल नहीं लगीं।
इस घटना के मद्देनजर हम विचार करें, तो पाएंगे कि पुलिस या कोई कानून ऐसे मामलों में कुछ खास नहीं कर सकता। महिला की हत्या के लिए जिम्मेदार पति को हम फांसी दे सकते हैं। हो सकता है कि इससे हर व्यक्ति के मन में खौफ भी बैठे, कि अगर वह दहेज के कारण पत्नी की हत्या करेंगे तो फांसी नसीब होगी, लेकिन क्या इससे हर घर में महिलाआंे को वह जरूरी सम्मान मिल सकेगा, जो उसके जीने के लिए जरूरी है।
हमारे समाज में महिलाओं के उत्पीड़न के अलग-अलग रूप हैं, मसलन-दहेज के लिए हत्या, कन्या भ्रूणहत्या, पुरुषोचित भावनात्मकपूर्ति के लिए हत्या या फिर इज्जत के लिए हत्या। यहां तक कि पुरुषों ने युवक-युवतियों के प्रेम संबंधों से अपनी जो इज्जत-आबरू जोड़ रखी है, उसके निशाने पर भी युवतियां ही हैं, क्योंकि कभी किसी ने इज्जत की खातिर अपने बेटे की हत्या नहीं की। लड़के इसका शिकार होते जरूर हैं, लेकिन लगभग मामलों में या तो लड़की की हत्या की जाती है या उससे प्रेम करने वाले लड़के की। कभी ऐसा सुनने में नहीं आया कि किसी बाप ने अपने लड़के की हत्या इस तर्क के साथ की हो, कि उसने किसी लड़की से प्रेम किया और खानदान की इज्जत पर कालिख लग गई। इससे जाहिर है कि पुरुष और स्त्री के लिए हमने समान साध्य के लिए अलग-अलग न सिर्फ नियम बनाए हैं, बल्कि प्राण-पण से उसकी सुरक्षा भी करते हैं।
यही सूरत दहेज को लेकर होने वाली हत्याओं मामले में भी है। कभी कोई हत्या इसलिए नहीं हुई कि पति अपनी पत्नी को जरूरी सुरक्षा या जीने का सामान मुहैया नहीं करा पा रहा था। कोई हत्या इसलिए नहीं हुई कि किसी पत्नी ने पति से लाखों रुपये मांगे और पति नहीं दे सका, तो उसकी हत्या कर दी गई। चूंकि, पति की परिस्थितियों और अमीरी-गरीबी में पत्नी का साथ होना ही उसका धर्म है, लेकिन पति के लिए ऐसा कोई धर्म नहीं बना है कि वह जीवन संगिनी बनने वाली स्त्री से पैसे की मांग न करे और वह जैसी भी, जिस भी हैसियत की है, उसके साथ निबाहे। यहां तक कि विवाह के कई-कई साल बाद भी पति और ससुराल पक्ष के लोग महिलाओं पर दबाव डालते हैं कि वह मायके से दहेज की मांग करे। जबकि, हम यह कभी नहीं चाहते कि हमारी अपनी बच्ची के साथ ऐसा कुछ हो।
साफ है कि महिलाओं के प्रति हिंसा व्यवस्थागत या कानूनी खामी के कारण नहीं है। यह हिंसा हमारे सामाजिक ढांचे और गैर-बराबरी की सोच में निहित है। हमने महिलाओं और पुरुषों के लिए अलग-अलग मानक तय किए हैं। हम अपनी लड़की पर हुए अत्याचार पर उद्वेलित होते हैं, लेकिन बहू से पैसे की मांग करते हैं और नहीं देने पर उसके साथ पशुता से पेश आते हैं। हम बेटी को कम से कम देना चाहते हैं, लेकिन बहू से ज्यादा से ज्यादा लेना चाहते हैं। यदि बहू पक्ष थोड़े से दबाव में ऐसा नहीं करता तो हम बहुओं को उसकी सजा देते हैं। यह लेनदेन का गणित जब तक बेटी और बेटे के अस्तित्व से जुड़ा रहेगा, यह समस्या बनी रहेगी। अगर हम चाहते हैं कि दहेज के लिए हमारी बेटी की हत्या न हो, तो हमे इस घृणित प्रथा को समूल मिटाना होगा। हमें दहेज न लेकर महिलाओं के व्यक्तित्व को मान्यता देनी होगी, मगर इसकी शुरुआत कौन करेगा?

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