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होली तो हो ली

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धार्मिक कसौटी पर कमर कसे होली का त्यौहार बिना किसी भेदभाव के अपने रंग बिखेर गया,लोग सराबोर भी हुए होली के सुहाने रंगों में भीगकर और उड़ते हुए सूखे रंग अबीर, गुलाल की धूम में. लोगों के अंदर आत्मीयता के रंग भरने वाला, रिश्तों में खुशियों के रंग भरने वाला होली का त्यौहार प्रत्येक वर्ष उमंगो से भरा होता है, फिर भी हमारे समाज की कुछ अप्रिय कृत्यों का शिकार उसे होना पड़ता है जिससे होली को निराशा भी होती है यह सब देखकर किन्तु उसकी विवशता है कि संस्कृति की मर्यादा उसे निभाना है और जनमानस के बीच उसे बार बार आना है. होली ने जनमानस में अपनी पारम्परिक छवि को समाप्त होते देखा जब गुझिया,पापड़ खाने के लिए लोग लालायित रहते थे और आज वह मांस मदिरा का सेवन कर रहे हैं वह भी होली के पवन पर्व पर. ऐसी ही कुरीतियों को पनपते देखकर होली को निराश होने के साथ शर्मिंदा होना पड़ा जब उसकी सौगात रंगों के स्थान पर लोगों ने कीचड़ और गंदगी फेंकना उचित समझा, ऐसा कृत्य करके लोग तो आनंदित हुए किन्तु होली को पीड़ा हुई इस बात पर की क्या जिन लोगों पर कीचड़ और गंदगी का अंश गिरा वह होली को समृद्धिशाली गौरवपूर्ण त्यौहार का स्थान प्रदान करेंगे ? इतना ही होता तो शायद होली को निराशा थोड़ी कम होती किन्तु होली के आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब उसने देखा कि गैर धर्मो को शाकाहार बनो,मांसाहार का त्याग करो का उपदेश देने वाले हिंदू धर्म के अधिकांशतया वह भी निम्न जातियों सहित उच्च जातियों के व्यक्तित्व ने होली जैसे धार्मिक पर्व पर मांसाहार को महत्व दिया, फिर किस मुंह से यह गैरधर्मो को मांसाहार से विरत रखने की बात करते हैं जब स्वयं उस दलदल में धंसते जा रहे हैं. खुशियों में भंग की ठंडाई और फगुवा गीतों की बहार से जहाँ होली का सम्मान बढ़ा वही दूसरी तरफ कुछ लोगों द्वारा मदिरा का सेवन करके स्वयं को और अपने परिवार की खुशियों को ग्रहण लगा दिया गया और दुखद यह रहा कि ऐसा कार्य अनपढ़ या निम्न जातियों के करने के कारण नहीं हुआ बल्कि इसका श्रेय भी उच्च जाति और धर्म के ठेकेदारों को ही मिला. नशे की हालात में विवेकशून्य होकर महिलाओ के साथ अभद्रता करके नशेड़ियो की छवि धूमिल होने से अधिक होली के सम्मान पर दाग लगा जब पीड़ित परिवारीजन या समाज के अन्य पीड़ित लोगों द्वारा कहा गया कि यह त्यौहार आता ही क्यूँ है जिसमे फूहड़ता, अश्लीलता को खुलकर परोसा जाता है. घृणा से मन भर गया होली का यह सब देखकर कि लोग धर्म की आंड में छिपकर किस प्रकार होली के पावन पर्व पर मांस-मदिरा का सेवन करके आनंद की अनुभूति कर रहे थे, आखिर यह परिवर्तन किस लिए ? आखिर रंगों का त्यौहार क्यूँ बनाया गया जब कीचड़ और गंदगी को ही चयन करना था, फिर महिलाओ का सम्मान करना तो धार्मिक एवं शाष्त्र सम्मत है फिर क्यूँ लोग त्यौहार के नाम पर अश्लीलता को सम्मिलित करके पावन पर्व को दागदार बना गए, विचारणीय है. मन में बहुत कुछ निराशाजनक विचार लेकर होली अपनी निर्धारित तिथि पूर्ण कर समय सीमा की बाध्यता से दूर होते हुए पुनः अपनी पारम्परिक शैली में स्वयं को देखने की कल्पना करते हुए अपने आने की प्रतीक्षा में सभी को छोड़ चली और और हम केवल इतना कह सके होली तो हो ली.

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