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हम….. कब बड़े होंगे

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हम बदलेंगे देश बदलेगा, यह धारणा प्रभावशाली सिद्ध हो सकती है किन्तु इस तरफ किसी का ध्यान क्यों नहीं जाता ? इस संबंध में गहराई से विचार करने की आवश्यकता है. सभी की दृष्टि देश को सुधारने की प्रक्रिया की तरफ लगी हुई है किन्तु कोई स्वयं को देखने का विचार नहीं करता जबकि सत्यता यही है कि जो कार्य हमसे संबंधित है उस कार्य के लिए भी हम दुसरो पर दोषारोपण करते हुए स्वयं से झूठ बोलते रहते हैं. प्रत्येक मनुष्य के अंदर बाल्यावस्था का भाव भी किसी कोने में स्थायित्व प्रदान करता है और बहुत से मनुष्य है जो समय के साथ स्वयं में बदलाव करते करते पूर्णतया बदल जाते हैं, स्वयं को भी भूल जाते हैं कि वह किस स्तर पर हैं और उन्हें किसके साथ कैसा व्यवहार किया जाना चाहिए यह भी भूल जाते हैं, जबकि ऐसा होना नहीं चाहिए. बात आती है बाल्यावस्था की जो मनुष्य पुर्णरुपेड विकसित होने के बाद भी बाल्यावस्था का भाव त्याग नहीं कर पाता और निरर्थक स्वयं का अथवा किसी अन्य का दोष देता है. किसी बच्चे को आप दस रूपये दीजिये और थोड़ी देर बाद आप बच्चे से दस रूपये वापस मांगिये, बच्चा आपको रुपया वापस नहीं करेगा, अब इस चित्रण की तुलना स्वयं से कीजिये क्या आप इस स्वभाव से मुक्त हैं ? नहीं आप अब भी वही कर रहे हैं जो आपने बचपन में किया था किसी भी वस्तु पर स्वयं का अधिकार स्थापित करना. दो बच्चे आपस में लड़ पड़े किसी बात को लेकर और उनके मन में एक दूसरे के प्रति द्वेष का भाव उत्पन्न हो गया, अब आप विचार कीजिये की किस प्रकार आज पूर्ण मनोमस्तिष्क के साथ यही व्यवहार हम आपस में करते हैं. इसी प्रकार घर परिवार के मध्य अनेको जिम्मेदारियों का बोझ आपके ऊपर रहता है और आप उसे एक साथ नहीं बल्कि सुविधानुसार निर्वहन करते हैं फिर भी सभी कार्य पूर्ण करने में कोई कमी अवश्य रह जाती होगी इसके लिए तो आप जिम्मेदार हैं कि आपकी कमी से कार्य अधूरा रह गया किन्तु जो व्यक्ति सम्पूर्ण राष्ट्र का नेतृत्व कर रहा है और आप उससे अपेक्षा करे कि वह देश के प्रत्येक व्यक्ति की समस्याओ को व्यक्तिगत रूप से सुने, समझे और उसका निदान करें तो आपकी दूरदर्शिता पर प्रश्नचिन्ह लग जाता है, कि आप अपने घर का कार्य पूर्ण जिम्मेदारी से नहीं कर सकते, जिसमे दो से अधिकतम दस सदस्यों को ही संतुष्ट करना है फिर किसी काम को एक अरब छब्बीस करोड़ जनता की मंशा के अनुरूप राष्ट्र मुखिया कैसे कर सकता है, विडम्बना भी ऐसी कि जितनी मुंह उतनी बातें अर्थात सभी की समस्याओ का श्रोत भी अलग अलग है. सम्पूर्ण राष्ट्र को सकुशल शासित किये जाने हेतु ग्राम प्रधान से लेकर विधायक सहित, मंत्री, मुख्यमंत्री का चुनाव किया जाता है कि जनता की परेशानियों का समाधान इन्ही स्तरों पर संभव हो सकता है किन्तु जनता कुछ दलबदलू राजनीतिज्ञों के बहकावे में आकर जिम्मेदार पद पर आसीन मुख्यमंत्री, मंत्री, सांसद, विधायक आदि को छोडकर सीधे दोषारोपण प्रधानमंत्री पर करने लग जाती है, क्या यह उचित है. जब आप स्वयं के कार्यालय अथवा घर से सम्बन्धित कर्तव्यों/दायित्वों का समय से सही प्रकार निर्वहन नहीं कर सकते तो जिस व्यक्ति के उपर सम्पूर्ण राष्ट्र का भार है वह कैसे निदान कर सकता है समस्त समस्याओ का, इसके लिए सहयोग आवश्यक है जनता का अपने प्रधानमंत्री के प्रति. किन्तु जनता क्या सहयोग करेगी जब अपने ही दायित्वों को पूर्ण करने में विफल है बस दोषारोपण ही सरल विधि है अपनी गलतियों को छिपाने की. यहाँ भी बाल्यावस्था का बोध होता है कि जिस बच्चे को अमुक कार्य दिया गया था वह किसी कारणवश उस कार्य को पूरा नहीं कर सका और पूछे जाने पर वह कार्य न पूर्ण होने के अन्य बहाने प्रस्तुत कर देता है, यही आप भी कर रहे हैं. आज देश में अव्यवस्था गतिशील है कहा जाये तो अतिशयोक्ति नहीं होगी, कारण बड़ा स्पष्ट है कि यदि हम चीन की बात करें तो वहाँ ऐसी अराजकताओ का स्थान कम है, जब भी कोई अधिकारी या कर्मचारी अपने दायित्वों के प्रति असफल पाया जाता है तो उसके विरुद्ध तत्काल निर्णय लेती है वहां की सरकार जैसा कि विगत में आपने सुना होगा कि एक घोटाला मामला जिसमे भ्रष्टाचार का तथ्य उजागर होने पर उस अधिकारी को फांसी दे दी गयी और अभी हाल में ही घटना सुनने को मिली थी कि सेना में अपने दायित्वों का पालन सही से न करने का परिणाम उस अधिकारी को तोप से उड़ा दिया गया. यह सन्देश देश की जनता को पहुचता है, इससे आपराधिक सोच में निश्चित रूप से कमी आई होगी. अब भारत की बात करे तो कितने प्रकार के घोटाले न्यायालय में लंबित हैं, कितने अपराधी विचाराधीन है जिनका फैसला अभी तक नहीं आया, जिन्हें न्यायालय द्वारा दोषसिद्ध किया गया वह भी जमानत/पैरोल के सहारे अपनी सजा को पूरी करते हैं, कितने भ्रष्टाचारी जमानत पर स्वतंत्र घूम रहे हैं और अपने विरुद्ध गवाहों को समाप्त करते जा रहे हैं अंत में गवाहों के अभाव में वह दोषमुक्त हो जायेंगे और फिर वही कार्य कारित करेंगे क्यूँ कि उन्हें पता है कुछ नहीं होने वाला हम निश्चिन्त रह सकते हैं. जब बच्चो पर अंकुश नहीं लगाया जाता तब बच्चे भी गलत कार्य करके भयरहित होकर निश्चिन्त रहते हैं उनके उपर किसी की डॉट मार का कोई प्रभाव नहीं रह जाता. यह तुलनात्मक विचार है जिनका अपने जीवन पर प्रयोग आवश्यक है, यदि हम अपना बाल्य स्वभाव त्याग नहीं कर सकते तो पूर्ण विकसित मनुष्य नहीं बन सकते यह ध्यान रखना होगा, छोटी छोटी बातों का निस्तारण बालक बनकर नहीं विवेकशील मनुष्य की भांति किया जाना ही आपके व्यक्तित्व को प्रभावशाली बना सकता है. हम शारीरिक रूप से बड़े हो गए हैं किन्तु मानसिक विकास में बच्चे का आस्तित्व जीवित है यह अवरोधक है आपके सफल जीवन का, बाल्यकाल स्वभाव का त्याग करना ही जीवनपथ को सरलता प्रदान करने में सहायक हो सकता है, इसके लिए हमें बड़ा होना आवश्यक है मानसिक विचारों से, जो राष्ट्र विकास में भी सहायक होगा.

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