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एक बुराई मन में आई…….. परिणाम हुआ दूषित

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हम स्वभावतः प्रत्येक बुराई से दूर रहना चाहते हैं, प्रत्येक गलत कार्य को गलत ही कहते हैं, घृणात्मक कार्यो की निन्दा करते हैं, गलत व्यक्ति पर ऊँगली उठाते हैं, बुरे व्यक्ति से घृणा रखते हैं आदि भावनायें हमारे अन्दर परिपोषित होती हैं किन्तु क्या हम सच में ऐसा कर पाते हैं या मिथ्या भ्रम है, विचारणीय है।
काजल की कोठरी में कितना भी प्रयास किया जाय किन्तु प्रवेश के बाद कालख का लगना निश्चित है, इसी प्रकार हम सभी बुराईयों की निन्दा करें, उससे दूर रहें और फिर भी मन में स्वच्छता न हो तब स्पष्ट हो जाता है कि कालख लगी है उससे मुक्त नही हो सके। जब हम दूर है अप्रिय साधन व्यक्ति विशेष से तो फिर कालख कैसे प्रभावित कर सकती है यह विचार भी आवश्यक है किन्तु सरल उत्तर है इसका, जिस प्रकार ईश्वर भजन के समय हमारे ध्यान में किसी अन्य विषय के आ जाने से साधना निष्फल हो जाती है उसी प्रकार हमारे मन में बुरे व्यक्ति व उसका चिन्तन हमारी सात्विकता को दूषित करते हुये हमारे मन में कालख का बोध कराता है, सामाजिक भावना में इसका अर्थ गूढ़ हो जाता है क्यूंकि हमने सरसरी तौर पर विचार कर अच्छे बुरे का निर्णय लिया इसलिये हम स्वयं को सही समझते हैं जबकि सतही तौर पर निष्कर्ष कुछ और मिलता है, कैसे ? यह विचारणीय है।
हमारा पड़ोसी हमारे मुकाबले बेहतर जिन्दगी का मजा ले रहा है, लेता होगा यह उसके द्वारा एकत्र की गयी सुविधाओं का सुख है इससे हमें क्या ? किन्तु हम स्वभावतः अपने विकारों का त्याग नही कर पाते और अपनी सुख सुविधाओं को विस्मारित करते हुये पड़ोसी की सुख सुविधाओं का चिन्तन करने लगते हैं। इससे हमें क्या लाभ मिला ? कुछ नहीं किन्तु हमें क्या हानि हुयी ? यह अवश्य स्पष्ट होता है कि जब हमने पड़ोसी का चिन्तन किया तब उत्पन्न हुयी भावनायें, दुर्भावनायें, कुत्सित विचारों ने किसे प्रभावित किया ? हमें, क्यूं कि हमने गलत चिन्तन किया जबकि पड़ोसी को तो इसका ज्ञान भी नही हुआ और वह अागे विकास की ओर बढ़ रहा है किन्तु हम उसका चिन्तन करके स्वयं विकार ग्रस्त हो गये और उन्नति मार्ग पर आगे बढ़ने के स्थान पर पड़ोसी चिन्तन में लगे रह गये। इसी प्रकार सभी धर्मो का अपना अपना उद्देश्य और महत्व है जिसे व्यक्ति अपने विचारों से सिद्धता प्रदान करता है और हम अनावश्यक यह धारणा मन में पाल लेते हैं कि उसने हमारे त्योहार पर बधाई नहीं दी जबकि हमने उसके त्योहार पर उसे बधाई दी थी, उसने हमारे धर्म को सम्मान नही दिया और हमने उसके धर्म को अबतक बहुत महत्व दिया, यह भावना हमें उसके प्रति मजबूती तथा स्वयं के प्रति दुर्बलता प्रदान करती है, क्यूंकि हम दूसरे का सोचकर स्वयं की सुन्दर भावनाओं को दूषित कर देते हैं और विकारयुक्त होकर स्वयं बुरा करने लगते हैं जबकि जिसके लिये विकार उत्पन्न हुआ वह निरन्तर प्रगति मार्ग पर बढ़ता रहता है क्यूंकि उसने आपके विषय में सोचकर अपना मन दूषित नही किया, परिणाम स्पष्ट हो गया, अब हमें क्या करना चाहिये ? यह विचार आवश्यक है।
प्रत्येक कार्य का सिद्धान्त हमारे द्वारा किये गये कर्मों पर आधारित है अर्थात् अच्छे कर्म बुरे कर्म और दोनो कर्मों का परिणाम अलग अलग होगा। यदि हम दोनो कर्मों का परिणाम जानते हैं तो हमारी बुद्धिमत्ता का परिचय हमारे द्वारा किये गये श्रेष्ठता कार्यों की तरफ ध्यान केन्द्रित करने में परिलक्षित होगी न कि मन में विकारों को लेकर किसी अन्य से अपनी तुलना करने में, इससे हमें बचना चाहिये और निरन्तर स्वयं के कार्यों का आंकलन करना चाहिये जिससे गलत सही का स्थान आवश्यकतानुसार आपका मार्गदर्शक सिद्ध हो सके, क्यूँ कि मन कांच की तरह कोमल होता है जो हलकी सी बुरे ग्रहण करते हैं सद्भ्व्नाओ को समाप्त करने के लिए तुत्कत बिखर जाता है और टूटे हुए कांच के टुकड़े अर्थात मन दूसरे व्यक्ति को चोट ही पंहुचा सकते हैं अर्थात एक बुराई मन में आई परिणाम हुआ दूषित.

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