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कोई माने या न माने, कमी अवश्य है हमारे विचारों में, जिसका दोषारोपण दूसरों पर करके हम स्वयं को स्वच्छ बने रहने का भ्रम पाले बैठे हैं. प्रतिदिन हजारों वृक्षों की कटाई होती है किसलिए या तो घर, मकान बनवाना है या फिर दलालो के द्वारा लालच दिए जाने पर धन प्राप्त करने की लालसा. किन्तु दोनों ही स्थिति में हम निजस्वार्थ के अतिरिक्त किसी अन्य विषय पर विचार करना ही नहीं चाहते जबकि ग्लोबल वार्मिंग जैसे खतरनाक स्थिति के जन्मदाता हम ही बन रहे हैं और अपनी ही उत्पत्ति का शिरा सदैव दूसरों के सिर पर फोड़ने को उतावले रहते हैं. हमारी अकर्मण्यता का विशेष परिचय तब सामने आता है जब हम स्वयं वृक्ष काटते हैं और सामाजिक मंच पर वृक्ष लगाये जाने की अपील भी हम करते हैं जबकि हम स्वयं एक भी वृक्ष भी नहीं लगाते सिर्फ प्रकृति संपदा को नष्ट करने की भूल करते जा रहे हैं.
हमारी स्वार्थनिजता का ज्वलंत उदाहरण देश की सबसे बड़ी समस्या के रूप में आरक्षण मुंह फैलाकर खड़ा हो चुका है, जिसे वर्ष 1949 में आर्टिकल 330 के अंतर्गत अति पिछड़े, कमजोर वर्ग को सबल बनाये जाने के उद्देश्य से लागू किया गया था किन्तु इसे कब समाप्त किया जायेगा या फिर आगे चलकर इससे होने वाले उत्थान के उपरांत इसका समायोजन किस प्रकार किया जायेगा इस पर महाविद्वानो द्वारा बिना विचार किये ही आनन् फानन आरक्षण लागू कर दिया गया जो मात्र भारत देश में ही पनप रहा है अन्य देशो में आरक्षण की सुविधा नहीं है तो क्या प्रश्न यह उठता है अन्य देश विकसित नहीं हैं ? या फिर भेदभाव को बढ़ावा देने वाले आरक्षण को किसी दूसरे रूप में पुनः संशोधित नहीं किया जा सकता जिसका असर देश में एकता और अखंडता को प्रभावित न करे ? किन्तु इस तरफ किसी का ध्यान नहीं जाता यह कहना गलत होगा, सभी जानते हैं इसका परिणाम क्या हो रहा है और आगे क्या हो सकता है, फिर भी मूक बधिर बनकर राजनीति में सत्ता धारण कर संसद में अनावश्यक विवाद फ़ैलाने में, जनता के पैसे का दुरूपयोग करते हुए संसद को न चलने देने का उपक्रम बना हुआ है, यह वही लोग हैं जो नहीं चाहते कि आरक्षण में सुधार हो, कारण निजस्वार्थ ही है जिसमे इन्हें वोट राजनीति यह नहीं करने दे रही है, आखिर आप देश की सुरक्षा और देश के भविष्य के लिए प्रतिनिधि चुने गए हैं तो अपना स्वार्थ क्यों देख रहे हैं क्यूँ देश की समानता व्यवहार नीति को दूषित करते हुए असमानता का बीज बो रहे हैं, यहाँ भी लोग केवल एक दूसरे पर दोषारोपण करते हुए स्वयं को अलग स्थान देकर जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ने में पारंगत हैं जिसके जाल में देश की जनता उलझकर आपसी कटुता, दुर्भावना का शिकार हो रही है.
धार्मिक धर्मान्धता की बात करे तो एक दूसरे को अनावश्यक टिप्पडी से घायल कर देने वाले शब्दों के बाण चलाने में जो निपुणता दिखाई देती है लोगो के अंदर उसे समाप्त करने में उसका थोडा सा भी अंश परिलक्षित नहीं होता. यहाँ भी वही सियासत है जहाँ धर्म के लिए मारना सिखाया जाता है किन्तु वास्तविक धर्म मानवता नहीं सिखाया जाता, सत्ता में बैठे दूषित राजनेता यह अवश्य बतलाते हैं कि यहाँ मस्जिद और यहाँ मंदिर का निर्माण होगा किन्तु यह नहीं समझाते कि जब ईश्वर एक है तो उन्हें मंदिर या मस्जिद में तलाश क्यूँ करते हैं अपने ह्रदय में स्थापित ईश्वर को नमन करे और मानवता का व्यवहार करते हुए गर्व का स्थान प्राप्त करें, ऐसे ही एक प्रश्न यह भी उठता है जो अयोध्या मंदिर निर्माण से सम्बन्धित है कि मुस्लिम चाहते हैं कि वहां मस्जिद बने जबकि अयोध्या सदियों से हिंदू धार्मिक स्थल रहा है जिसके दर्शन हेतु देश और विदेश से लोग दर्शन और पूजा करने हेतु आते रहे हैं. यदि ऐसे स्थान पर मस्जिद का निर्माण हो भी जाता है तो देश के किस किस भाग से लोग नमाज पढ़ने आयेंगे, यह विचारणीय हो जाता है, आखिर देवबंदी और बरेलवी जैसी मानसिकता के शिकार मुस्लिमो में कौन से मुस्लिम उस मस्जिद में नमाज पढेंगे, शिया और सुन्नी जैसी दीवारों को न गिरा पाने वाले मुस्लिमो में कौन दावेदार होगा उस मस्जिद में नमाज पढ़ने का ? क्या तब वहां एकता हो जायेगी यदि हाँ तो उससे पहले प्रत्येक मुस्लिम त्योहारों पर कौन से मुस्लिम हैं जो आपसी उपद्रव करके एक दूसरे को मारने के लिए उतावले हो जाते हैं और देश की शांति व्यवस्था को खतरा पहुचाते हैं. यह जवाब शायद ही किसी के पास होगा किन्तु राजनीति का शिकार जनता अनावश्यक रूप से हिंदू मुस्लिम एकता को खंडित करते हुए धर्म के नाम पर कटने मरने को तैयार है, और दोषारोपण भी एक दूसरे का करते हैं.
अब भी समय है जागने का, ज्यादा देर नहीं हुई है सबकुछ हमारे हाथो में है, क्यूँ अनावश्यक किसी का दोषारोपण करते हुए हम अपना आनेवाला कल स्वयं समाप्त कर रहे हैं, हमारे द्वारा बोया गया एक गलत बीज क्या हमारी आने वाली पीढियों को देकर जायेगा विचार करने के लिए पर्याप्त अवसर है हमें समझना होगा और सुधार की दिशा में अग्रसर होना होगा, अन्यथा गोरे अंग्रेजो की गुलामी से निकल कर काले अंग्रेजो के गुलाम बनकर अपनी पीढियों को इनकी पीढियों का गुलाम बनाने का कार्य हम कर रहे हैं और अपने विनाश के लिए हम स्वयं उत्तरदायी हैं, दूसरा कोई और नहीं यह हमें मानना ही होगा.
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