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blogid : 20079 postid : 808539

कुंठा तू न गयी मन से

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आज के सामाजिक परिवेश में जहाँ एक तरफ आधुनिकता से ओत प्रोत जीवन शैली में सभी का रंग निखर रहा है, वहीँ दूसरी ओर मन के किसी कोने में असंतोष का भी वास बना हुआ है, सब कुछ पास है फिर भी मनुष्य स्वय को सुखी नहीं महसूस कर पा रहा है, एक असुरक्षा की भावना कही न कही मनुष्य के अंतर्मन को विचलित करता रहता है। मनुष्य के पास न तो इसका उपाय है न ही दूसरा कोई समाधान, क्यों कि वह एक समस्या का हल ढूढ़ने का प्रयास करता है तब तक उसे दूसरी समस्या घेर लेती हैं। ऐसी स्थिति में जन्म होता है कुंठा का, जो हमारे अंदर ही पैदा होती है और हमें ही परेशान करना इसकी नियति बन जाती है, ऐसा भी समय आ जाता है जब इंसान ज्यादा देर तक इसके प्रभाव में रह जाता है तब इस कुंठा के तरह तरह के रूप निकल कर मनुष्य को आगे की सोचने समझने की शक्ति को समाप्त करने लग जाते हैं। यह स्थिति अवश्य ही ऐसी है जिसके प्रभाव में मनुष्य स्वय को भूलने लगता है अपने आस पास के माहौल को अच्छा या बुरा समझने की शक्ति उसमे नहीं रह जाती और समाज या अपने ही लोग उसे शत्रु के सामान लगने लगते हैं, उसको लगता है उसकी कोई सुन नहीं रहा उसे कोई समझ नहीं रहा जब कि यह सत्य नहीं हो सकता वह बस अपने द्वारा सोची गयी बातो और योजनाओ को अपने अनुसार न पाकर स्वयं को असुरक्षित महसूस करने लगता है। कुंठा एक ऐसी बीमारी है जो प्रत्यक्ष तो नहीं दिखती इसका अप्रत्यक्ष स्वरुप स्वयं उसको भी नहीं पता चल पता जो इसके अधीन स्वयं उलझा रहता है, इसके परिणाम अवश्य ही प्रत्यक्ष रूप में सामने आते हैं। कुंठा का जन्म कोई रहस्य नहीं है यह तो बस एक परछाई है जैसे ही हम किसी के बारे में सोचते है और उसके समकक्ष स्वयं को निचले स्तर पर देखते हैं बस जन्म ले लेती हमारे अंदर कुंठा और परछाई की तरह अंतर्मन में उठने वाले तथ्यों को नकारात्मक सोच में परिवर्तित करने में इसका योगदान सफल रूप में प्रदर्शित होने लगता है। इससे बचना हमारे लिए सबसे ज्यादा आवश्यक है यह हमारा न दिखाई देने वाला शत्रु है और हम सभी जानते हैं, शत्रु तो शत्रु है वो हमें सुख देना नही जानता फिर हम अपने अधिकारों और अपने विचारो को शत्रु को हवाले कैसे कर दे, ऐसे शत्रु का मुकाबला हम सभी को करना होगा जिससे स्वच्छ विचारो के साथ ही हम अपने सपनो का भविष्य बना पाने में आत्मनिर्भर बन सकेंगे।

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