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मनुष्य का गौरव उसकी मानवता है

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मनुष्य अपने आप में एक अनसुलझी पहेली है. जैसे प्रकृति की गोद से उत्पन्न होने वाले तरह तरह के पेड़, पौधे, जीव, जंतु, मानसून देखने को मिलते है जो देखने में सुलभ लगते हैं लेकिन उनके अंदर छिपा रहस्य पता चलने पर हम हतप्रभ रह जाते हैं, ठीक उसी तरह यह मानव का स्वभाव भी अनसुलझा हुआ है, कुछ समय के लिए ऐसा अवश्य लगता है कि हम जिसे जानते हैं, उसको हमसे बेहतर दूसरा कोई नहीं जानता लेकिन हमारा भ्रम तब टूट जाता है जब हम उसको दूसरे रूप में देखते हैं जैसा कि हमने उसके बारे में सोचा ही नहीं हुआ होता. रिश्तो की मजबूती का दूसरा नाम विश्वास है लेकिन विश्वास को विश्वासघात में बदलने वाला भी मनुष्य है. मनुष्य के पास जो शक्ति है उसका प्रयोग वह बुराई समाप्त करने से ज्यादा स्वयं को श्रेष्ठ घोषित करने में लगा देता है, फिर अंत में वह खोज शुरू करता है सहानुभूति की, ऐसी सहानुभूति जिसे उसने पहले कभी दूसरो को देने की कल्पना भी नहीं की थी और आज वह स्वयं को श्रेष्ठ घोषित कर लेने के बाद जब स्वयं सहानुभूति की तलाश करता है तब वास्तविक रूप से उसको ज्ञात हो पाता है कि वह अभी तक दूसरो से अलग रहकर उन्हें दूर नहीं कर रहा था बल्कि स्वयं दूर हो रहा था. मनुष्य जो कभी निजी स्वार्थ में भगवान के मंदिर में जाता है और अपनी मनोकामना पूर्ण करने हेतु भगवान को भ्रष्टाचार में लिप्त करने का प्रयास करता है, भगवान को लालच देता है फिर कार्य पूर्ण न होने की अवस्था में उसी भगवान को दोषी ठहराता है. मनुष्य का स्वभाव कब किस प्रकार किस दिशा की तरफ जायेगा इसका अनुमान स्वयं मनुष्य को नहीं हो पाता क्यों कि वह स्वयं को सबसे समझदार, बुद्धिमान और दुसरो को अयोग्य समझता है. उसको अपनी गलती का आभास अपने द्वारा किये गए कार्यों की सफलता अथवा असफलता से ज्ञात होता है. ऐसे कई उदहारण मिलते हैं जिनसे मनुष्य की वास्तविकता का पता चलता है, जैसे व्यक्ति को जिससे लाभ मिला वह अच्छा है और जिससे स्वार्थ कि पूर्ति नहीं हो सकी वह बुराई कि श्रेणी में हो जाता है. दूसरे नजरिये से भी इस बात को देखा जा सकता है कि किसी व्यक्ति ने किसी दूसरे व्यक्ति से कुछ धनराशि उधार ली किन्तु जब वापस करने का समय आया तब वह टाल मटोल करने लगता है और जिससे धनराशि ली है उसको ही बुरा भला कहने लगता है. मनुष्य का पर्याय है मानवता, लेकिन देखने पर पता चलता है मनुष्य के अंदर मानवता का वास समाप्त होता जा रहा है, एक मनुष्य दूसरे मनुष्य को अपने से निर्बल ही देखना चाहता है यदि उसे आभास होता है कि सामने वाला व्यक्ति सुख सम्पदा में उससे श्रेष्ठ है अथवा बराबर है तो उसके अंदर ईर्ष्या जन्म ले लेती है जो स्वाभाविक रूप से मनुष्य को मनुष्य से दूर करने में सहायक होती है. मनुष्य की उदारता और उसकी आक्रामकता किस हद तक सहयोगी और विनाशक हो सकती है इस बात से भली प्रकार परिचित होने के बावजूद भी मनुष्य क्यों नहीं संभल पाता, क्यों जान बुझ कर अज्ञानता की दलदल में फंस जाता है मनुष्य, इसका उत्तर सभी के पास है किन्तु कोई भी इसे सुलझाना नहीं चाहता, वह डर जाता है अपने ही बनाये गए समाज से, अपने ही द्वारा बनायीं गयी प्रथाओ से, अपने ही द्वारा बनाये गए नियमो से, बल्कि सत्यता यह है कि मनुष्य को स्वयं से झूठ बोलने कि आदत हो गयी है जो उसे सत्य की ओर जाने से सदा रोकती रही है और रोकती रहेगी. ऐसे ही अज्ञानता के वश में होकर कोई साधु संत के आश्रम में सर्वस्व लुटाकर खुश हो रहा है, कोई झूठे और गंदे राजनीति का शिकार हो रहा है, कोई अपनी ही बहन और बेटी को कामुकता का शिकार बना रहा है या फिर मर्यादाओ के नाम पर अपनों के द्वारा ही छला जा रहा है, फिर भी मनुष्य खुद को श्रेष्ठ कहलाने में गौरवान्वित महसूस करता है, गौरव कि बात तब होती जब मनुष्य अपने अंदर छिपी मानवता को बाहर ला सके. मानवता के साथ कार्य करते हुए यदि मनुष्य दुसरो का भला नहीं कर सकता तो कम से कम स्वयं पाप कि दलदल से दूर तो रह ही सकता है. मनुष्य को जन्म देने वाले को ही मनुष्य त्याग करने में लज्जा महसूस नहीं करता और ऐसे मनुष्य पर विश्वास करने वाला मनुष्य सबसे बड़ा अज्ञानी होता है.

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