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मानव विकृति विचार दर्शन

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#मानव_विकृति_विचार_दर्शन
अदृश्य ईश्वरीय शक्ति का प्रभाव कहीं न कहीं मानव ह्रदय सहित मनोमस्तिष्क पर भी है तभी लोगों की आस्था का प्रभाव समाज में स्थापित है, किन्तु मानव अपने स्वभाव के वशीभूत आस्था और श्रद्धा से किस प्रकार खेलता है यह विचारणीय हो जाता है जब हम देखते हैं कि धार्मिक स्थलों पर प्रसाद, फूल वाला मिलावटी और बासी प्रसाद देने के साथ ही कभी कभी भगवान को लगाये गए भोग प्रसाद और चढ़ाये गए पुष्प, चुनरी, नारियल, अगरबत्ती, कपूर आदि को पुनः बेच देता है किसी अन्य श्रद्धालु को, और वह श्रद्धालु भक्ति भाव से चढ़ाये गए प्रसाद को शुद्ध मन से पुनः धार्मिक स्थल पर चढा देता है. इससे क्या प्रमाणित होता है क्या ईश्वरीय शक्ति का भय इन व्यापारियों में भी है या फिर ईश्वरीय शक्ति का भी प्रभाव संतुलन व्यवस्था के अनुसार भक्त के लिए ही है, सही निर्णय लिया जाना संभव नहीं है.
धार्मिक स्थल के बाहर बैठा भिखारी पैसे को ही क्यों महत्व देता है जबकि श्रृद्धालु उसे जीवन की सबसे आवश्यक सामग्री भोजन कराने को तैयार रहता है फिर भी भिखारी को पैसे बिना संतोष नहीं. क्या अर्थ हो सकता है इसका, इसमें भिखारी की श्रद्धा किसके प्रति है ईश्वर के प्रति या फिर पैसे के प्रति, इसका परिणाम क्या श्रृद्धालु के लिए ही है या फिर धन लोलुपता से ग्रसित भिखारी को भी परिणाम मिलेगा, यह विचारणीय हो जाता है.
धन सम्पन्नता से मदमस्त हुआ सेठ जब धार्मिक स्थल पर पहुचता है तब धार्मिक स्थल की व्यवस्थाओ में अंतर आ जाता है. सभी श्रद्धालु पीछे हो जाते हैं और अमीर धनाढ्य व्यक्ति प्रथम प्रवेश दर्शन का अधिकारी हो जाता है आखिर क्यूँ ? क्या धनाढय और निर्बल व्यक्ति के श्रृद्धा केन्द्र में कोई अंतर आ जाता है या फिर सेठ को विशेष कृपा प्राप्त हो जाती है जो बाद में दर्शन करने वालो को नहीं मिल पाता होगा शायद, इस पर विचार किये जाने पर किसका दोष प्रदर्शित होता है ? महंत का या फिर धनाढ्य सेठ की मूर्खता का या फिर निर्बल सभ्य व्यक्ति के आत्म संतोष का, जो भी हो किन्तु एकरूपता का स्थान वहा भी प्राप्त नहीं हुआ जहा छोटा बड़ा सभी को एक समान स्थान दिया जाता है.
प्रायः महंत ऐसा समझते हैं कि धार्मिक स्थलों पर केवल चंदा धनराशी, चढावे में आनेवाला धन मात्र उपभोग के लिए आता है जिसका सदृश्य चित्रण देखने को मिल जाता है कि धार्मिक स्थल पर जल प्याऊ नहीं मिलता, दीवारों पर अश्लील शब्द का लिखा होना, धार्मिक स्थल की रंगाई पुताई वर्षों में कभी होती होगी, गाय बछड़े का अंदर तक प्रवेश जिससे धार्मिक स्थल परिसर गन्दा दिखाई देता है, अक्सर धार्मिक स्थलों के आस पास जलाशय भी होता है जिसका न तो कभी जल निष्कासन कर सफाई कराई जाती है और न ही श्रद्धालुओ को उसमे स्नान करने से रोका जाता है बल्कि एक पुजारी होगा जो जल में स्नान करने हेतु सभी को उकसाता है फिर संकल्प के नाम पर पैसे ऐंठने बैठ जाता है, यहाँ भय किसको होना चाहिए ? जो कभी दिखाई नहीं देता किसी ढोंगी के अंदर, बल्कि श्रृद्धालु भयभीत रहता है कि कही कोई चूक न हो जाये.
ऐसी स्थति में आवश्यक हो जाता है कि सभी श्रद्धालुओ को धार्मिक स्थल की सुविधाओ असुविधाओ के संबंध में धार्मिक स्थल के श्रेष्ठ महंत को अवगत कराया जाये कि इससे श्रद्धालुओ की श्रद्धा पर असर पड़ता है, इसके लिए धर्म के नाम पर मरने मिटने वालो को आगे आना चाहिए और प्रथम धार्मिक स्थलों का भ्रमण करते हुए व्यवस्थाओ के संबंध में धार्मिक स्थल को व्यवस्थित कराया जाना चाहिए, किन्तु सनातन के नाम पर लोगो को बहकाकर, समूह बनाकर, लड़ने के लिए प्रेरित करते रहना सभी को, स्वयं को हिंदू बताकर गर्वित होना क्या यही धर्म रह गया है? नहीं सही धर्म का पालन तो तब होगा जब हम धार्मिक स्थलों की अव्यवस्थाओ को व्यवस्थित कर सके जिस पर किसी का ध्यान ही नहीं जाता और धार्मिक स्थल के पूज्यनीय गण श्रद्धालुओ के धन का उपभोग स्वयं की सुविधाओ पर प्रयोग करते हैं, इसके लिए जागरूक होना आवश्यक है यही केन्द्र है जिससे धर्म और विश्वास का जन्म होता है जब यही नष्ट हो जायेगा तब कौन सा हिंदू और कैसा सनातन ? मात्र धन के पीछे भागना कहाँ तक श्रेष्ठ कहा जा सकता है, विचारणीय है.

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