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आरक्षण आन्दोलन- आगाज़ से अंजाम तक

Kshirodesh Prasad
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समाज समाजिक संबन्धो का हीं तानावाना है जहां आपसी प्रेम ओर सहयोग की परिपाटी से हीं जीवन निर्वाह संभव होता है । और इस सामाजिक व्यवस्था को सरलता पूर्वक चलाने के लिए हीं श्रम विभाजन की व्यवस्था बनाई गई । महान समाजशास्त्री इमाईल दुर्खीम ने कहा कि श्रम विभाजन वह व्यवस्था है जो समाज में एकता लाने का काम करता है, इसका न केवल आर्थिक बल्कि सामाजिक और नैतिक आधार भी होता है जो समाजिक संबन्धो की घनिष्ठता तथा परस्पर निर्भरता के लिए अति आवश्यक है । विभिन्न वर्ग के व्यक्तियों के बीच सामाजिक समरूपता तथा कार्यकलापों में विविधता का महत्व होता है । समाज की एक सामूहिक चेतना है, जिसके आश्रय में व्यक्ति जीवन निर्वाह करते हुए अन्य सभी सदस्यों के साथ एक सूत्र में बंधता है और यहीं प्राचीन भारत में कर्म के आधार पर वर्गीकरण का उद्देश्य था । परंतु मनोवैज्ञानिक आधार पर वह सामाजिक स्तरीकरण व्यवस्था जिसमें लोगों का कार्यात्मक विभाजन किया गया था , जो सभी वर्णों की लोगों को दायित्व निभाने की अपूर्व प्रेरणा देती थी, वही वर्ग व्यवस्था आगे चलकर जातिवाद का निकृष्ट रूप धारण कर लिया ।
कहते हैं परिवर्तन यानि बदलाव संसार का नियम है और सृष्टि संचालन के लिए अति आवश्यक भी । परंतु वह बदलाव सकारात्मक होना चाहिए ।इतिहास गवाह है पूरे विश्व में जब भी कोई क्रांति हुई तो उल्लेखनीय परिणाम सामने आये, जिन आन्दोलनो के आधार कल्याणकारी और सकारात्मक परिवर्तन थे वहां प्रगति के नये सोपान गढ़े गये, और नकारात्मकता फैलाने वाली क्रांतियाँ नक्सलवाद, आतंकवाद, जातिवाद रूपी भस्मासूर बनकर आत्मघाती हीं सिद्ध हुए । भारतीय सामाजिक व्यवस्था की यही विशेषता रही है कि यहां दुखी,दरिद्र,असहाय,जरूरतमंद या पीड़ित मानवता की सेवा और सहयोग की भावना है । सन् 1932 में गोलमेज सम्मेलन में यह तय किया गया की समाज में आर्थिक, सामाजिक और शैक्षणिक रूप से कमज़ोर लोगों की सूची तैयार की जाय और उस के आधार पर समाज में इन कमजोर वर्ग के लिए कुछ प्रावधान रखा जाय ताकि इनको समाजिक संरक्षण मिल सके । बाद में इसी आधार पर संविधान में प्रावधान रखा गया और इस सूची को नाम दिया गया अनुसूचित जनजाति और अनुसूचित जनजाति, फिर एक नया नाम जुड़ा अत्यंत पिछड़ा वर्ग। इस आरक्षण प्रक्रिया जो पहले 10 सालो के लिए था, इसका मूल उद्देश्य था आरक्षण के द्वारा ऐसे समाज को प्रतिनिधित्व करने का मौका देना जो समाजिक रूप से कमजोर है। वह 10 साल वाली आरक्षण रूपी छिपकली आज 70 साल की मगरमच्छ बन गई है और नजाने कितने प्रतिभाओं को निगलता जा रहा है ।
कुछ लोगों ने आरक्षण को हथियार और ढाल दोनो बना लिया है और खुब राजनीतिक फायदा उठाया । शायद आरक्षण का मुद्दा नेताओं का सबसे पसंदीदा चुनावी मुद्दा है ।आरक्षण का झुनझुना देश के भोली भाली जनता के हाथ में पकड़ाकर नेताओं ने खूब मजे लिए हैं । और शायद भारत ऐसा पहला देश हैं जहां लोग अपने आपको पिछड़ा और दबा-कुचला बनाए रखने में ऐड़ी-चोटी का जोर लगा दे रहै हैं । अपनी ही देश की संपत्ति को जला कर खाक कर दे रहे हैं । अपनी संकीर्ण स्वार्थ के लिए अन्य भाई-बहनों के भविष्य को अंधकार में धकेल रहे हैं । वर्तमान में जो आरक्षण की आग भारत में लगी है उसे भड़काने, वालो में, उसे चलाने वालो में वह दबी-कूचली जनता कहीं दिखाई नहीं देती जिनके लिए यह आंदोलन चलाया जा रहा है । 2014 में नरेन्द्र मोदी के राष्ट्रीय राजनीति में उदय के साथ कई राजनीतिक दल व नेता अस्ताचल हो रहे हैं । वे अपनी अस्तित्व के लिए संघर्षरत हैं । खुद को बचाने के लिए वे किसी का भी बलिदान ले सकते हैं और इसके लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं , उनके हरकतों से तो ऐसा हीं प्रतीत हो रहा है । उन नेताओं को यह समझना होगा कि दूसरों को आग में झौंक कर वे भी नहीं बच सकते । और जनता को भी इस प्रकार की षड़यंत्रों के हथियार न बनने के लिए जागरूक होना पड़ेगा ।
गरीबी जाति या धर्म देख कर नहीं आति । आज स्वतंत्रता के 70 साल बाद इस बात को समझने की आवश्यकता है कि देश में गरीबों को आरक्षण की नहीं संरक्षण की जरूरत है । भारत जैसे विशाल देश को निश्चित ही साम्यवाद की जरूरत है पर वह साम्यवाद न रषियन हो न चाईनिज़ हो, वह साम्यवाद भारतीय और वैदिक हो । सर्वे भवन्तु सुखीन: , जिसमें अपनी रोटी मिल बांट कर खाने की प्रेरणा, मानव मात्र एक समान- जाति वंश सब एक समान, एक दूसरे को सहयोग करने की भावना हो । जाति के आधार पर आरक्षण को कदापि उचित नहीं माना जा सकता, न नैतिक रूप से, न समाजिक रुप से । जो आज महंगी एनफिल्ड बूलेट में महंगे कपड़े पहन कर, जो हाथों में हथियार ले कर, पुलिस और न्ययालय को नजरअंदाज कर अपराधिक रूप से आंदोलन कर रहे हैं, उन्हे भला आरक्षण की क्या अवश्यकता है । परंतु जो वास्तव में सामाजिक रूप से पिछड़े हुए हैं उन्हे शिक्षणिक , आर्थिक व मानवीय सहायता दे कर समाजिक संरक्षण दिया जाना चहिए । पर वह साहयता आरक्षण के आधार पर न हो । क्रांति तो होनी चाहिए पर वह क्रांति बौद्धिक हो, ऐसा वातावरण बने, ऐसी योजना बने जिससे सभी आगे बढ़े, योग्य बने और योग्यता के आधार पर प्रतिभाओं का नियोजन हो । गरीबी हर वर्ग में हर समाज में हो सकती है पर इसके चलते हिंसात्मक होना और राष्ट्र की संपत्ति जलाना अनुचित है । जो लोग अपने को दलित मानकर बेकाबू हो रहे हैं उन्हे अपनी मानसिक दरिद्रता को छोड़ कर प्रगतिशील सोच के साथ राष्ट्र उत्थान के लिए आगे बढते रहना चाहिए और उन्हे किसी के बहकावे पर नहीं अपनी काबिलियत पर भरोसा करना चाहिए । जातिवाद खत्म हो तो भारत की कई समस्याएँ अपने आप खत्म हो जाएंगी ।

-क्षीरोदेश प्रसाद

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