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मुन्नवर राणा ने कहा,
वो इस तरह से मेरे गुनाहों को धो देती है,
माँ जब बहुत गुस्से मे होती है तो रो देती है।
पर मेरे गुनाहों धोने वाली मेरी माँ तो अब रो भी नही सकती थी, कैसी विवशता, कैसी प्रताड़ना परवरदिगार ने मेरी माँ के आँचल मे भरी, उन आखिरी १७ दिनों में?
जिसका अन्तर्मन सिर्फ प्रेम से ओद था,
जिसमे अपने-पराये का न कोई बोध था।
माँ तुम्हारा असहनीय दर्द जिसकी कल्पना मात्र मेरे हर दर्द की पराकाष्ठा को भी दर्दहीन कर देती है, यह पहला मौका था जब पिछली बार मै तुझसे से मिलने के लिए घर आया और तुमने मुझे यह कह-कहकर परेशान नही किया कि जाते हुए ये,ये और ये भी लेकर जाना, तुमको पता होते हुए भी कि मै कुछ लेकर नही जाता फिर भी तुम्हारा बार बार ले जाने के लिए कहना, जो परेशान करता था मुझे, पिछली बार की चुप्पी ने कितना सताया शायद अंदाज़ा होगा तुम्हे भी।
तुमने ये भी नही पुछा खाना खाया की नही, जाते हुए दही-गुड़ के लिए नही कहा, मेरे प्रणाम करने पर आशिर्वाद के लिए तुम्हारा हाथ तक न उठाना, ओह! कितनी पीड़ा?
मुझे पता है कि आशिर्वाद तो तुमने बहुत दिया होगा पर…
मेरे जन्म के बाद से सिर्फ मैने दुख दिया था तुमको, सच मे मुझे नही पता था कि मेरे दिये सारे दुखों की तुमने जो गठरी बाँधी थी वो मेरे सर पर ही दे मारोगी और मै तड़पता रहूँगा ताउम्र।
कितनी पीड़ा थी आँचल मे माँ तेरे ?
खुशियाँ उड़ाती रही सर फिर भी तू मेरे ,
तुम्हारा मेरे इस उम्र मे भी कार्यालय से आने पर मुझे थपकीयां देकर सुलाना बहूत याद आयेगा माँ।
मुझे तुमने बहूत लंबी आयु का आशिर्वाद तो बहूत दिया पर अत्यंत लंबी आयु के बावजूद भी बचे हुए जीवन मे तुमको न देख पाने का दंश झेल कैसे पाउंगा मै।
भरे घर मे तेरी आहट कहीं मिलती नही अम्मा,
तेरे हाथों सी नरमाहट कहीं मिलती नही अम्मा।
मै तन पर लादे फिरता हूं दुशालें रेशमी लेकिन,
तेरी गोदी सी गर्माहट कहीं मिलती नही अम्मा।
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