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तुम्हारी याद जाती क्यों नही दिल से,
माँ तुम अकेली ही थी क्या संसार मे?
कहते हैं कि समय के पास एक ऐसा मरहम होता है जो सारे घाव भर देता है पर मेरा ये घाव क्यों नासूर होता जा रहा है माँ?
क्यों व्यस्तता की हद तक व्यस्त होने के बाद भी तुम्हारी यादों ने मेरा साथ न छोड़ने की कसम खा रखी है?
क्या करूं? कैसे निजात दिलाऊं अपने आप को तुमसे जुड़ी एक-एक स्मृतियों से?
और पता नही क्यों माँ, मै चाहता भी नही हूं तुम्हारी यादों से दूर होना क्योंकि तुम्हारी यादों के अलावा कुछ है भी तो नही ना मेरे पास।
तुम्हारी याद ही तो मुझे, मेरे जीवन के पल-पल मे समाहित तुम्हारे अस्तित्व का बखान करती है तो फिर मै सोच भी कैसे सकता हूं उनसे अलग होने के बारे मे?
तू नही थी,पर था पुरा परिवार ये घर-बार भी,
क्यों अकेला था मै जबकि,था भरा दरबार भी।
भीड़ मे भी मै रहा,क्यों भला बिल्कुल अकेला,
नीरस सा क्यों लग रहा है अब मुझे संसार भी।।
सभी कहते हैं कि कीसी के जाने से संसार रुकता नही पर मै क्या करूं मेरी दुनिया के पैरों को गर लकवा मार गया?
कहां से लाउं वो सहारा जो तुमने मुझे दिया था मेरा पहला कदम उठाने से पहले?
कैसे भूल जाउं मै वो निवाला जो मेरे न खाने की जिद पर तुमने रो रो के खिलाया था?
कैसे भूल जाउं उन चोटों को ,जो बाबूजी से मुझे बचाते हुए अक्सर तुम्हे लग जाती थी?
कैसे भूल जाउं उन कहानियों को मै, रात रातभर जागकर मुझे सुनाया था जो तुमने माँ?
कहां जाउं और किसको सुनाऊं? कौन रोकेगा मेरे अन्दर उठने वाले इन ज्वार भाटाओं को?
ये सब याद आने पर मन कुहुकने लगता है माँ, ठिक वैसे ही जैसे मेरे पेट मे दर्द होने पर तुम तड़पने लगती थी।
कैसे समझाऊं अपने आप को कि मिल सकता हूं मै तुमसे कभी? तुम्हारे रहते तो मै बच्चा था पर अब तो बच्चा भी नही रहा मै कि झूठी तसल्ली दे दूं अपने आप को।
तुम ही तो थी जो मीलों दूर से फोन से बात करते हुये भी मेरी भूख का अंदाजा लगाकर जल्दी खाना खा लेने की हिदायत देती थी। अब बहुत भूखा होने पर भी कहां किसी को मेरी भूख का अंदेशा होता है माँ।
तुम्हारी गैरमौजूदगी को पता नही क्यों,मन मानने को तैयार ही नही होता अब भी, जबकि तम्हारे शरीर को आग मे जलकर खाक होते घण्टो निहारा था मैने।
मुझे तू अपने आगोश मे अब ले ले ये नींद,
मुझे गोद मे सुलाने वाली मेरी माँ नही रही।
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