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असुरक्षित होता बचपन

मुद्दे की बात, कुमारेन्द्र के साथ
मुद्दे की बात, कुमारेन्द्र के साथ
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आखिर हमारे बच्चे इतने असुरक्षित क्यों होते जा रहे हैं? बच्चों के साथ अमानवीयता करने वाले इतनी हैवानियत कहाँ से लाते हैं? बच्चों के हत्यारों के सामने क्या उनके बच्चों के चेहरे नहीं उभरते होंगे? मासूम बच्चियों के साथ दुष्कर्म करने वालों को क्या अपनी मासूम बच्ची याद न आती होगी? समाज की अनेकानेक घटनाओं को देखने-अनुभव करने के साथ दिल-दिमाग प्रश्न करने की स्थिति में खड़े हो जाते हैं. दिल-दिमाग उस समय और भी अधिक प्रश्नकर्ता की मुद्रा में होता है जबकि कोई घटना किसी बच्चे से सम्बंधित होती है. एक-एक घटना पर कई-कई सवाल. एक-एक बात पर कई-कई सवाल. सवाल ऐसे भी कि जवाब देते नहीं बनता है. बच्चों के साथ अमानवीयता, उनकी हत्या, उनके साथ दुष्कर्म अब कभी-कभार वाली घटनाएँ नहीं रह गईं हैं वरन रोजमर्रा की बात हो गई है. सुबह समाचार-पत्र उठाओ तो ऐसी ही घटनाओं से भरा पड़ा दिखता है. चौबीस घंटे में किसी भी समय टीवी खोलो उसमें ऐसी ही खबरें सामने आने लगती हैं. सोशल मीडिया पर नजर दौड़ाओ तो वो भी ऐसी ही खबरों से रचा-बसा दिखता है. कभी स्कूल के रास्ते से बच्चे का अपहरण, कभी पार्क में खेलते समय बच्चे का अपहरण, कभी घर के बाहर खेलती बच्ची का गायब होना, कभी बाजार गई बच्ची का घर वापस न लौटना. बच्चों के गायब होने की परिणति में उनका लौटना बहुत कम सुनाई देता है. ऐसे बच्चों की मृत देह ही किसी झाड़ी में, किसी सुनसान में, किसी खंडहर में मिलने की ही खबर आती है.

इन सबके बीच ही आवाज़ उठती है बच्चों के बाहर निकल कर खेलने देने की. बच्चों के शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य के लिए उनके पार्क में, मैदान में खेलने की, उनके कूदने की. चर्चा होती है बच्चों को घर की चहारदीवारी से बाहर निकाल कर खेले मैदान में भेजने की. विमर्श होता है बच्चों का खेल-कूद छोड़कर मोबाइल, टीवी, कंप्यूटर में व्यस्त हो जाने पर. हम भी ऐसी चर्चा करते हैं, आप सब भी ऐसी ही चर्चा अवश्य करते होंगे. आखिर हम सभी अपने बच्चों को स्वस्थ देखना चाहते हैं. उनका शारीरिक और मानसिक विकास होने देना चाहते हैं. इसीलिए चाहते हैं कि वे मकान के बंधन से बाहर निकल खुली हवा में साँस लें. घर के कमरों में खेलने के बजाय बाहर मैदान में खेलें. मोबाइल, टीवी पर कार्टून चरित्रों को करतब करते देखने के स्थान पर वे खुद बाहर पार्कों में करतब करें. आपका-हमारा सोचना कहीं से गलत नहीं है पर सवाल वही उठता है कि आखिर बच्चों को उनकी ही जान की कीमत पर खेलने-कूदने देने की आज़ादी देना कहाँ तक उचित है? क्या अब बच्चों के स्वतंत्र होकर खेलने-कूदने के दिन गुजर चुके हैं? क्या वे अब कहीं भी सुरक्षित नहीं रह गए हैं?

सामाजिक विमर्श के लिए खुद को सक्षम बताने वाले सामाजिक विज्ञानी, इन्सान के दिमाग की हलचल का आकलन करने वाले मनोविज्ञानी पता नहीं किस तरह की शोध करने में लगे हैं कि वे अभी तक बच्चों के साथ हो रहे अमानवीय कृत्यों का कोई समाधान नहीं खोज पाए हैं. हमारे वैज्ञानिक मंगल पर चाँद पर यान भेजने में सक्षम हो चुके हैं. एकसाथ सैकड़ों सेटेलाईट छोड़ने में हम सक्षम हो गए हैं. वीडियोकॉन्फ्रेंसिंग के द्वारा हमारे चिकित्सक ऑपरेशन करने लगे हैं. वीडियोकॉन्फ्रेंसिंग के द्वारा हमारे प्रशासनिक अधिकारी जिले भर की गतिविधियों पर सजगता से रिपोर्ट लेने लगे हैं. नगर भर में प्रशासन द्वारा कैमरे लगवाकर सुरक्षा-व्यवस्था पुख्ता किये जाने जाने के दावे किये जाने लगे हैं. इसके बाद भी हम अपने बच्चों को सुरक्षित रख पाने में कामयाब नहीं हो पा रहे हैं. आखिर चूक कहाँ हो रही है? आखिर गलती किसकी है? कई बार लगता है कि किसी भी तरह के सवालों का जवाब देने से बेहतर है कि हम खुद अपने बच्चों के पहरेदार बनकर उनके आसपास चौबीस घंटे मौजूद रहें. कई बार लगता है कि बच्चों का स्वास्थ्य तो किसी न किसी तरह बन ही जायेगा, उनकी जान को सलामत रखने के लिए उनको घर में ही कैद रखा जाये. समझने वाली बात ये है कि बच्चों की जान जाने का मुद्दा न तो राजनीति का विषय है, न समाजशास्त्रियों के अध्ययन का विषय है, न ही किसी बुद्धिजीवी के लिए शोध का विषय है. ऐसे में हमारे बच्चों की सुरक्षा की व्यवस्था हमारी अपनी समस्या है. हमें, हम सबको अपने बच्चों की जान की सुरक्षा के लिए खुद जागना होगा, खुद सचेत रहना होगा.

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