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आँसुओं की किरिच और संवेदना की भावभूमि

मुद्दे की बात, कुमारेन्द्र के साथ
मुद्दे की बात, कुमारेन्द्र के साथ
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समय बीतता जाता है और इसके साथ-साथ बहुत कुछ रीत जाता है. बहुत कुछ याद रहता है बहुत कुछ भूल जाता है. न जाने क्या-क्या साथ रहता है और न जाने कितना छूट जाता है. इस छूटने, भूलने में रिश्ते भी होते हैं, सम्बन्ध भी होते हैं, इन्सान भी होते हैं. रिश्तों, संबंधों की भावात्मकता के चलते न जाने कितने लोग अपने बनते हैं और न जाने कितने लोगों से अपनापन बनता है. इस अपनेपन में दो दिलों के बीच, दो विचारों के बीच, दो भावनाओं के बीच की आपसी सामंजस्य क्षमता, आपसी समन्वय आदि का बहुत बड़ा योगदान रहता है. संबंधों का ये अपनापन समाज में स्नेह, प्रेम की आधारशिला होता है. आवश्यक नहीं कि इस स्नेह में, इन संबंधों में आपस में किसी तरह की स्वार्थी मानसिकता छिपी हो. दिल से दिल का तालमेल विशुद्ध रूप से मनोभावों की शुद्धता का परिणाम है. दो दिलों के बीच की आपसी ईमानदारी का प्रतिफल है.

दो लोगों के बीच की आपसी भावात्मक ईमानदारी के चलते संबंधों में, रिश्तों में प्रगाड़ता बढ़ती है. रक्त-सम्बन्धी न होने के बाद भी अनेक रिश्ते रक्त-संबंधों से ज्यादा सशक्त और विश्वासपरक सिद्ध होते हैं. देखा जाये तो यह एक तरह की आपसी बॉन्डिंग होती है जो बिना कुछ कहे, बिना कुछ करे दो लोगों में स्वतः ही एक-दूसरे के प्रति आकर्षण का भाव जगाती है. यही भाव दो लोगों को करीब लाता है, उनमें रिश्तों की, संबंधों की उष्णता का प्रवाह करता है. विशुद्ध ईमानदारी, विश्वास पर आधारित इस तरह के रिश्तों, संबंधों की पावन इमारत सदियों तक दिल को धड़काती है. गुजरते दिनों की स्मृतियों को जीवंत रखती है. समय गुजरता रहता है और अपनेपन की, अपनों की यही स्मृतियाँ, यही यादें उनको हमारे बीच सदैव जीवित रखती हैं. व्यक्ति सामने है या नहीं, इससे अधिक मायने रखता है कि व्यक्ति दिल में है या नहीं. दिल में किसी के बसे होने के कारण ही वर्षों बीत जाने के बाद भी उसे भुलाया नहीं जाता है.

संबंधों, रिश्तों की प्रगाड़ता दो दिलों को जोड़ती है, दो लोगों के बीच कहे-अनकहे संसार का विस्तार करती है. यही प्रगाड़ता यदि संबंधों का, प्रेम का विस्तार करती है, चेहरे पर हँसी का प्रादुर्भाव करती है तो यही प्रगाड़ता आँखों में नीर भी भरती है. न जाने किस तरह की भावनात्मकता का संसार चारों तरफ रचा-बसा होता है जहाँ हँसी-ख़ुशी के साथ आँसुओं का प्रवाह होता है, अपनों के खोने का भय होता है, सबकुछ उजड़ जाने का डर होता है. किसी का एक पल में मिलकर जीवन भर के लिए जुड़ जाना और किसी का जीवन भर साथ रहकर भी एक पल में जुदा हो जाना, आश्चर्यबोध जैसा कुछ प्रतीत करवाता है. न कहने के बाद भी सबकुछ समझने का भाव, सबकुछ समझते हुए भी कुछ न कहने का बोध, जैसे अलौकिक दुनिया का निर्माण करता है. काश! संबंधों, भावनाओं, रिश्तों, संवेदना की मासूम सी आधारभूमि पर आँसुओं की, जुदा होने की, सबकुछ छूट जाने की कष्टप्रद खरोंच न बनने पाती.

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