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एक सिक्के के दो पहलू हैं युद्ध और पाकिस्तान

मुद्दे की बात, कुमारेन्द्र के साथ
मुद्दे की बात, कुमारेन्द्र के साथ
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‘मेरे पिता को युद्ध ने मारा है, पाकिस्तान ने नहीं’ पता नहीं यह वाक्य उस बेटी की मानसिकता को दर्शाता है अथवा नहीं किन्तु इतना तो सच है कि इसके सहारे बहुतों की मानसिकता उजागर हो गई. राष्ट्रवाद और राष्ट्रविरोध की बारीक रेखा के बीच ऐसे किसी भी मुद्दे पर बहुत गंभीरता से विचार किये जाने की आवश्यकता होती है. देखा जाये तो किसी ने भी, चाहे वे इस बयान के पक्ष में खड़े हों या फिर वे जो इसके विरोध में उतरे हुए हैं, गंभीरता से विचार करने का प्रयास भी नहीं किया. वर्तमान की जगह अतीत में उस जगह खड़े होकर एक पल को विचार करिए, जबकि एक दो वर्ष की बच्ची के सामने उसके पिता का पार्थिव शरीर रखा हुआ है. उस बेटी को समय के साथ पता चलता है कि पाकिस्तान के साथ हुए किसी युद्ध में उसके पिता की मृत्यु हुई है. इस हकीकत का सामना होते ही उसे पाकिस्तान से नफरत हो जाती है. ऐसे में उसकी माँ उसे बताती है कि उसके पिता की हत्या पाकिस्तान ने नहीं की वरन उन्हें युद्ध ने मारा है. अपने छोटे से संसार में माता-पिता के युगल रूप में अपनी माँ को ही देखती उस बच्ची के लिए ये जानकारी सार्वभौमिक सत्य की तरह महसूस हुई. बिना किसी शंका के उसने अपनी माँ के द्वारा दी गई इस जानकारी को परम सत्य मानकर ग्रहण कर लेती है. अब उसे लगने लगा कि नहीं, उसके पिता को पाकिस्तान ने नहीं बल्कि युद्ध ने मारा है. ऐसा किसी मनगड़ंत या फिर कपोलकल्पना के आधार पर व्यक्त नहीं किया जा रहा वरन उस बेटी के द्वारा ज़ारी किये गए वीडियो में इस तरह की जानकारी साझा की गई है. संभव है कि वो माँ अपनी बच्ची के मन से नफरत का जहर निकालने की कोशिश कर रही हो. संभव है कि बच्ची की माँ, उसके शहीद पिता की पत्नी के मन में पाकिस्तान के प्रति किसी तरह का नफरत का भाव न रहा हो. ऐसा इसी देश में बहुत से लोगों के साथ है, सरकार के साथ है, स्वयंसेवी संगठनों के साथ है, साहित्यकारों के साथ है, कलाकारों के साथ है, विद्यार्थियों के साथ है कि उनके मन में पाकिस्तान के प्रति नफरत का भाव नहीं है. ऐसा होना किसी गलती का, किसी अपराध का सूचक नहीं है. दोनों देशों की तरफ से आज़ादी के बाद से आज तक लगातार दोस्ताना रवैया बनाये रखने के प्रयास होते रहे. दोनों देशों के मध्य मधुर सम्बन्ध बनाये जाने की कवायद उच्चस्तरीय रूप में निरंतर होती रही हैं. ऐसे में यदि उस बच्ची की माँ ने कोई कदम उठाया तो वो गलत कहाँ से हुआ? ऐसी जानकारी मिलने के बाद यदि उस बच्ची के मन में पाकिस्तान से नफरत के बजाय युद्ध के प्रति नफरत का भाव पैदा हुआ तो कुछ गलत कहाँ हुआ?

गलत कुछ भी नहीं हुआ, इसके बाद भी गलत हुआ. यही वो स्थिति है, यही वो महीन रेखा है जो चिंतन का, विवाद का, विचार का रुख मोड़ती है. एक पल को पुनः वर्तमान में आते हैं और उसी बच्ची की तरफ मुड़ते हैं. उस बच्ची की तरफ जिसे शायद अब अपने पिता का चेहरा भी सही ढंग से याद न हो मगर तस्वीरों में देखते-देखते उसने अपने पिता की तस्वीर को दिल-दिमाग में पक्के से स्थापित कर लिया है. इसके साथ ही उसने ये भी स्थापित कर लिया है कि उसके पिता को पाकिस्तान ने नहीं युद्ध ने मारा है. अबोध मन में उसकी माँ के द्वारा स्थापित की गई इस जानकारी ने इतना गहरा प्रभाव छोड़ा कि जैसे ही उसे मौका मिला उसने उन ताकतों के साथ खड़े होने में कोताही नहीं दिखाई जो किसी न किसी रूप में खुद को पाकिस्तान-समर्थक बता रहे थे. अबोध मन में गहरे से पैठ गई बात ने एक पल को ये भी विचार नहीं किया कि विवाद का सिरा जहाँ से शुरू हुआ है उसकी डोर वे अतिथि थामे हुए थे जिनके तार आतंक से जुड़े हुए हैं. उनका तादाम्य उनसे जुड़ा हुआ है जिनका मकसद भारत के टुकड़े करना है. जिनका उद्देश्य कश्मीर की आज़ादी तक जंग ज़ारी रहना है. अबोध मन को लिए चली आ रही वो बच्ची शारीरिक रूप से या मानसिक रूप से अब अबोध नहीं कही जाएगी. इसलिए उसके उस बयान के बाद ये गलती सब तरफ से हुई कि किसी ने उसको उसके बयान का सही अर्थ समझाने की कोशिश नहीं की. उसके बयान के पीछे की मानसिकता जाने-समझे बिना उसको धमकाने, डराने का काम शुरू कर दिया गया. जो विरोध में थे उनके द्वारा भी, जो उसके साथ थे उनके द्वारा भी. और तो और उस बच्ची द्वारा भी एक पल को अपने बयान की गंभीरता पर विचार किये बिना ही शहीद पिता की शहादत को सरेबाज़ार खड़ा कर दिया.

उस बयान के सन्दर्भ में एक बात जैसा कि सेना की जानकारी से स्पष्ट है कि उस बच्ची के पिता की मृत्यु कारगिल युद्ध में न होकर एक आतंकी हमले में हुई थी जो कारगिल युद्ध समाप्त होने के बाद हुआ था. यहाँ एक पल को इस घटना को संदर्भित न करते हुए सम्पूर्ण परिदृश्य में विचार करें तो स्पष्ट है कि युद्ध किसी भी समस्या का हल नहीं. ये भी स्वीकारा जा सकता है कि यदि युद्ध न हो रहे होते तो न केवल उस बच्ची के पिता बल्कि न जाने कितने पिता, न जाने कितने बेटे, न जाने कितने पति, न जाने कितने भाई आज जिंदा होते. इसी आशान्वित होने वाली स्थिति के साथ ही एक सवाल मुँह उठाकर खड़ा होता है कि आखिर यदि युद्ध ही न हो रहे होते तो सेना की आवश्यकता पड़ती ही क्यों? यदि युद्ध होने ही न होते तो उस बच्ची के अथवा किसी अन्य के परिवार का कोई सदस्य सेना में जाता ही क्यों? तब क्या सेना बोरवेल से बच्चे निकालने के लिए बनाई जाती? ऐसे में क्या सेना का गठन प्राकृतिक आपदा से बचाव के लिए किया जाता? ऐसी स्थिति में क्या सेना राहत कार्यों को अंजाम देने के लिए बनाई जाती? और यदि ऐसा होता भी और यदि किसी सैनिक की मृत्यु किसी राहत कार्य को करते समय हो जाती तो ऐसी प्रभावित बच्ची का बयान क्या होता? क्या मृत्यु के भय से तब राहत कार्यों के लिए भी सेना का गठन न किया जाता?

क्या होता, क्या न होता की संभावित स्थिति से एकदम परे ये स्थिति स्पष्ट है कि युद्ध एक ऐसी प्रक्रिया है जो न चाहते हुए भी स्वीकारनी पड़ती है. इस अनचाही स्थिति की अपने आपमें सत्यता ये है कि उस बच्ची के पिता की मृत्यु हुई है, वो चाहे युद्ध में हुई हो या फिर आतंकी हमले में. एकपल को युद्ध की स्थिति को ही स्वीकार लिया जाये तो उस बच्ची के बयान के साथ सिर हिलाते खड़े हुए लोग जरा उस बच्ची को बताएं कि पाकिस्तान से हुए इतने युद्धों में कौन सा युद्ध ऐसा है जो भारत ने अपनी तरफ से शुरू किया? यदि युद्ध से इतर आतंकी हमले में उसके पिता की मृत्यु को स्वीकार लिया जाये तो उस बच्ची के साथ खड़े लोग जरा ये बताएं कि भारत के अन्दर आतंकी घटनाओं को प्रश्रय देने वाला, प्रोत्साहित करने वाला देश कौन सा है?

न चाहते हुए युद्ध को स्वीकारने वाली स्थिति को दूर रखने की कोशिश सदैव से सरकारों द्वारा होती रही हैं, आज भी हो रही हैं. यही कारण है कि हजारों-हजार बार घुसपैठ करने के बाद भी भारत की तरफ से युद्ध जैसी स्थिति नहीं बनाई जाती. अनेकानेक बार देश की जमीन पर आतंकी हमले करने के बाद भी सरकारी स्तर पर पाकिस्तान से मैत्री-भाव की उम्मीद जगाई जाती है. युद्ध को जितनी बार भी देश पर थोपा गया वो पाकिस्तान की तरफ से, क्या इसके बाद भी वो बच्ची कहेगी कि उसके पिता को पाकिस्तान ने नहीं मारा है? इस देश में आतंकी घटनाओं में सिर्फ और सिर्फ पाकिस्तान का हाथ रहता है, क्या इसके बाद भी वो बच्ची कहेगी कि उसके पिता को पाकिस्तान ने नहीं मारा है? उसके समर्थन में खड़े लोग अपनी आँखों से पट्टी उतारें और उस बच्ची को भी खुद की आँखों से देखने दें. महसूस करने दें कि युद्ध कोई समाज नहीं चाहता है, कोई सरकार नहीं चाहती है, कोई देश नहीं चाहता है. कम से कम भारत के सन्दर्भ में ये बात सीना ठोंककर कही जा सकती है. और जिस कारगिल युद्ध की बात वो बेटी कर रही है वो एकबार अपने पिता की तस्वीर की आँखों में आँखें डालकर उन्हीं से पूछ ले, कि पिताजी आपको किसने मारा है? जो जवाब उसे मिलेगा, उसके बाद वो पाकिस्तान से नफरत करे या न करे, युद्ध से नफरत करे या न करे मगर उनसे अवश्य नफरत करेगी जो आज उसका उपयोग स्वार्थ के लिए कर रहे हैं. वो उनसे अवश्य नफरत करने लगेगी जो देश की कीमत पर अपनी आज़ादी चाहते हैं. वो उनसे नफरत जरूर करने लगेगी जो देश के टुकड़े होने के नारे लगाते हैं. फिर एक दिन इसी बच्ची को अपने पिता की शहादत पर गर्व होगा और इसी बच्ची के मुँह से निकलेगा, भारत माता की जय.

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