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ज्ञान और पावनता का प्रतीक है वसंत पंचमी

मुद्दे की बात, कुमारेन्द्र के साथ
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हिन्दी महीनों के अनुसार माघ मास की पंचमी तिथि को वसंत पंचमी के पावन पर्व का आयोजन किया जाता है. शास्त्रों में इसका उल्लेख ऋषि पंचमी के रूप में भी किया गया है. ज्ञान, दिव्यता, पौराणिकता, आध्यात्मिकता आदि का जितना अद्भुत समन्वय वसंत पंचमी पर दिखाई देता है वैसा किसी और पर्व में देखने को नहीं मिलता है. ऋतुराज वसंत अपनी वासंती बयार के साथ सबके मन को लुभाता हुआ पूर्ण दिव्याभा के साथ आता है. अपने आपमें दिव्यता, भव्यता, ऊर्जा का संचार करते हुए वासंती प्रवाह न केवल प्रकृति को वरन उसके अंगों-उपांगों तक को नवीन ऊर्जा से भर देता है. वसंत ऋतु के आगमन के साथ ही प्रकृति का कण-कण खिल उठता है. प्रकृति से लेकर पशु-पक्षी तक सभी उल्लास से भर जाते हैं. माँ सरस्वती के जन्मने के रूप में वर्णित पौराणिकता के चलते जहाँ वसंत पर्व में पावनता के दर्शन होते हैं वहीं सम्पूर्ण प्रकृति पर छाई माँ शारदे के वीणा की मधुर तान सबको सम्मोहित करती है.

पौराणिकता आधार पर ऐसी मान्यता है कि पृथ्वी के निर्माण के बाद, जीवों की उत्पत्ति के बाद भी एक तरह का सूनापन देवताओं को दिखाई दिया. ब्रह्मा जी के लिए ये चिंता का विषय था कि इतनी गहन और श्रेष्ठ सर्जना के बाद भी पृथ्वी पर अजीब सी शांति छाई हुई है. उन्होंने विष्णु जी की अनुमति से पृथ्वी पर एक दिव्य शक्ति का प्रादुर्भाव किया. इस शक्ति के उत्पन्न होते ही चारों तरफ ज्ञान, उत्सव, संगीत, राग-रागिनियों, पावनता, दिव्यता का वातावरण चित्रित होने लगा. स्वर-लहरियाँ दसों दिशाओं में गूँजने लगीं. पौराणिक कथाओं में वर्णित है कि उस दिव्य शक्ति छह भुजाओं के साथ अवतरित हुई. यह दिव्य शक्ति एक हाथ में पुस्तक, दूसरे में कमल, तीसरे और चौथे हाथ में कमंडल तथा पाँचवें और छठवें में वीणा हस्तगत किये थी. इसके दिव्य रूप से ऋषियों को वेदमंत्रों का ज्ञान हुआ. सभी जीवों को उस दिव्य शक्ति की वीणालहरी से स्वर प्राप्त हुआ. तब ब्रह्मा ने उस देवी को वाणी की देवी सरस्वती कहा. वर्तमान में माँ सरस्वती को बागीश्वरी, भगवती, शारदा, वीणावादनी और वाग्देवी सहित अनेक नामों से पूजा जाता है. ये विद्या और बुद्धि प्रदाता हैं. संगीत की उत्पत्ति करने के कारण माँ सरस्वती को संगीत की देवी भी स्वीकारा जाता है. वसन्त पंचमी को इनके जन्मोत्सव के रूप में भी मनाते हैं. ऋग्वेद में भगवती सरस्वती का वर्णन करते हुए कहा गया है-
प्रणो देवी सरस्वती वाजेभिर्वजिनीवती धीनामणित्रयवतु
अर्थात ये परम चेतना हैं. सरस्वती के रूप में ये हमारी बुद्धि, प्रज्ञा तथा मनोवृत्तियों की संरक्षिका हैं. हममें जो आचार और मेधा है उसका आधार भगवती सरस्वती ही हैं. इनकी समृद्धि और स्वरूप का वैभव अद्भुत है. पुराणों के अनुसार श्रीकृष्ण ने सरस्वती से ख़ुश होकर उन्हें वरदान दिया था कि वसंत पंचमी के दिन तुम्हारी आराधना की जाएगी. देश के कई हिस्सों में वसंत पंचमी के दिन विद्या की देवी सरस्वती की पूजा होती है जो आज तक सतत प्रवहमान है.

माँ सरस्वती को भारतीय मान्यतानुसार ज्ञान की, विद्या की देवी स्वीकार भी किया गया है. इस पर्व की पावनता की वैज्ञानिकता के सम्बन्ध में इसलिए भी सहज विश्वास किया जा सकता है क्योंकि जिस प्राकृतिक वातावरण में वसंत का आगमन होता है उस समय चारों तरफ हरियाली के साथ-साथ खेत पीले रंग की चादर ओढ़े हुए सुहाने मौसम का स्वागत कर रहे होते हैं. खेतों में फैली फसलों की हरियाली और वासंती रंग किसानों के मेहनत का सुखद पुरस्कार दर्शा रही होती है. मस्ती में आनंद से सराबोर होते किसान झूमते हुए इसी वासंती रंग से अपार ऊर्जा का संचरण अपने भीतर महसूस कर रहे होते हैं. पूस की कड़कती ठण्ड के बाद सुहाने, गुलाबी मौसम में चारों तरह आनंद और मनमोहकता का बिखराव दिखाई देता है. उत्सवधर्मी भारतीय ऐसे किसी भी अवसर को आनंद में परिवर्तित कर लेते हैं जहाँ सर्वत्र खुशियों की आहट सुनाई देने लगे. यही कारण है कि वसंत पंचमी को किसी भी तरह के मांगलिक कार्यों का शुभारम्भ किया जा सकता है. वैदिक परम्पराओं का पालन करने वाले, मुहूर्त, शुभ घड़ी आदि देखकर कार्य करने वाले लोग भी इस दिन स्वेच्छा से निर्बाध रूप से अपने मांगलिक कार्यों का आरम्भ करते हैं.

वसंत पंचमी की पौराणिकता के साथ-साथ इसके साथ ऐतिहासिकता भी सम्बद्ध है. ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर वसंत पंचमी का दिन पृथ्वीराज चौहान की भी याद दिलाता है. उन्होंने विदेशी हमलावर मोहम्मद गौरी को सोलह बार युद्ध में पराजित किया और उदारता दिखाते हुए हर बार जीवित छोड़ दिया. इसके बाद सत्रहवीं बार हुए युद्ध में पृथ्वीराज चौहान जब पराजित हो गए तो मोहम्मद गौरी ने उन्हें नहीं छोड़ा. वह उन्हें अपने साथ अफगानिस्तान ले गया और उनकी आंखें फोड़ दीं. इसके बाद गौरी ने उनको मृत्युदंड देने से पहले उनके शब्दभेदी बाण का कमाल देखना चाहा. पृथ्वीराज चौहान के साथी कवि चंदबरदाई के परामर्श पर गौरी ने ऊंचे स्थान पर बैठकर तवे पर चोट मारकर संकेत किया. चंदबरदाई ने पृथ्वीराज चौहान को संकेत करते हुए मोहम्मद गौरी के बैठे होने के स्थान का आभास करवाया.
“चार बांस चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमाण।
ता ऊपर सुल्तान है, मत चूको चौहान॥”

पृथ्वीराज चौहान ने कोई भूल नहीं की. उन्होंने तवे पर हुई चोट और चंदबरदाई के संकेत से जो बाण छोड़ा वह गौरी के सीने में जा धंसा. इसके बाद चंदबरदाई और पृथ्वीराज ने भी एक दूसरे के पेट में छुरा भौंककर आत्मबलिदान दे दिया. सन 1192 ई को घटित यह घटना भी वसंत पंचमी वाले दिन ही हुई थी.

वसंत पंचमी की पौराणिकता, ऐतिहासिकता और उसकी दिव्याभा के साथ-साथ उसमें साहित्यिकता का भी समन्वय है. सम्पूर्ण भारतवर्ष की समस्त ऋतुओं में से वसंत ऋतु एकमात्र ऐसी ऋतु है जिसे सभी आयुवर्ग के लोगों द्वारा पसंद किया जाता है. विद्या की देवी माँ सरस्वती के अवतरण दिवस के कारण इसका सम्बन्ध शिक्षा, ज्ञान से होने के कारण शिक्षक, शिक्षार्थी के साथ-साथ साहित्यकार, लेखक भी सहज रूप में इससे अपने को सम्बद्ध मानते हैं. शिक्षक, शिक्षार्थी शैक्षणिक संस्थानों में, गुरुकुलों में, विद्यालयों में माँ सरस्वती का पूजन करते हैं. इसी तरह कवियों, साहित्यकारों, लेखकों ने इस पर्व को युवामन के चिर-अभिलाषी पर्व के रूप में वर्णित किया है. उनके द्वारा वसंत का उद्घाटन कहीं नायिका के रूप में चित्रित किया गया है तो कहीं उसे प्रेयसी के रूप में दर्शाया गया है. ऐसा विरल समुच्चय अन्यत्र देखने को मिलता नहीं है जबकि किसी एक पर्व के साथ पावनता, पौराणिकता, परम्परा, ऐतिहासिकता, साहित्यिकता, शिक्षा, ज्ञान, ऊर्जा, जोश आदि का समन्वय हो. देखा जाये तो वसंत पंचमी सृजन का प्रतीक है. उमंग, उल्लास, जोश का प्रतीक है. नवचेतना का गान है तो नवोन्मेषी प्राकट्य का आधार है. वसंत की इस पावन वासंती ऊर्जा में प्रयास यही हो कि सभी अपने में नवचेतना का स्फूर्त प्रकीर्णन महसूस करें. नवचेतना का संचार भरें और उस नवीन स्फूर्ति से देशहित में, समाजहित में खुद को प्रेरित करें.

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