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नेताओं के विकास का पैमाना — मोबाईल, कारें

मुद्दे की बात, कुमारेन्द्र के साथ
मुद्दे की बात, कुमारेन्द्र के साथ
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देश में एक ओर मंहगाई से निपटने की चर्चा चल रही है वहीं दूसरी ओर नेताओं के पास कोई काम-धंधा नहीं है। हमारे परिचित के एक नेता जी हैं, यहां जिले में। राजनैतिक दल की जिला कार्यकारिणी में हैं। आज अचानक उनसे मुलाकात हो गई और अनजाने ही उनसे देश के विकास पर चर्चा चल गई। चर्चा चली तो विकास से किन्तु कहीं न कहीं धरातल पर काम कर रहे राजनीतिक व्यक्तियों की सोच का खुलासा भी हो गया।

चित्र गूगल छवियों से साभार

उनके अनुसार देश के विकास को मापने का पैमाना मोबाइल, कार, पक्की सड़कें, गांव-गांव में पहुचती सड़कें हैं। मंहगाई, शिक्षा, रोटी, मकान, भ्रष्टाचार के नाम पर वे कन्नी सी काटते दिखे। आम जनता के प्रति उनके दायित्वों का पता भी इससे चलता है कि वे इस बात को पूर्ण अहं के साथ कहते दिखे कि वे राजनीति का काम अपने मन से कर रहे हैं किसी से इसका वेतन नहीं लेते। यदि जनता को लगता है कि राजनेता कोई काम नहीं कर रहे हैं तो जनता स्वयं काम करे, आन्दोलन करे। यदि जनता अच्छा काम करेगी तो नेता उसके पीछे हो लेंगे।

और बहुत सी बातें हुईं जो दर्शा रहीं थीं कि जब स्थानीय स्तर पर काम कर रहे नेताओं का यह हाल है तो सोचा जा सकता है कि आने वाले समय में ये देश को कैसे दिशा देंगे। जब देश के नेता यह मानने लगें कि जनता के लिए वे एहसान रूप में काम कर रहे हैं, जनता स्वयं अपने काम को करवाने के लिए आन्दोलन करे, नेता जनता की समस्या को केवल सुनने के लिए सुनता है न कि उसके समाधान के लिए तो इसके पीछे का मनोवैज्ञानिक आधार समझा जा सकता है।

इधर नेताओं की मानसिकता पर कभी-कभी हताशा भी होती है कि उनके लिए अभी तक विकास का पैमाना शिक्षा, रोटी, कपड़ा, मकान, स्वास्थ्य आदि जैसी मूलभूत आवश्यकताओं के विकास से निर्धारित नहीं हो पाया है। वे अभी भी विकास के सूचकांक को मोबाइल, सड़कों, कारों आदि से नाप रहे हैं। उनके लिए इस बात के मायने नहीं कि रोजमर्रा काम करने वाला व्यक्ति पूरे दिन की मेहनत के बाद यदि 160 रुपये पाता है तो उसमें से वह घर के लिए क्या लेकर जायेगा? प्याज, तेल, आटा, नमक, मिट्टी का तेल, मसाला, सब्जी आदि का हिसाब लगा कर देखिये तो पता चलेगा कि वह क्या खायेगा और क्या बचायेगा?

औद्योगीकरण के कल्पित विकास ने हमारे समाज से मध्यम वर्ग को पूर्णतः समाप्त कर दिया है। अब समाज में एक वर्ग है अमीर का और दूसरा वर्ग है गरीब का। इस व्यवस्था में जहां कि अनियन्त्रित विकास हो रहा हो वहां अमीर और अमीर हो रहा है तथा गरीब और गरीब होता जा रहा है। इसके बाद भी हमारे नेता जी विकास को भौतिकतावादी वस्तुओं से जोड़कर देख रहे हैं। कुछ यही हाल केन्द्र का और राज्यों में कार्य कर रहे नेताओं का है। उनके लिए मंहगाई कोई मुद्दा नहीं है, वे तो बस मंहगाई को अपने-अपने चुनावी स्टंट के तरीके से इस्तेमाल करना चाह रहे हैं। उनके लिए गरीबी और गरीब नाम की कोई समस्या ही देश में नहीं रह गई है, वे स्वयं किसी न किसी रूप में धन को प्राप्त कर ले रहे हैं तो समझ रहे हैं कि देश में सभी के लिए धनोपार्जन करना बिलकुल आसान हो गया है।

इस देश में जहां अभी भी बचपन कूड़े के ढ़ेर में अपनी जिन्दगी खोज रहा हो, जहां अभी भी पढ़ाई के लिए बच्चों को खाने का लालच दिया जा रहा हो, जहां शिक्षित करने के नाम पर बच्चों को अपना नाम लिखना ही सिखाया जा रहा हो, जहां खाने के लिए अभी भी बच्चों को घातक कारखानों में काम करना पड़ रहा हो, जहां समूचा परिवार भी मिलकर भी दोनों समय के भोजन की व्यवस्था न कर पा रहे हों, इलाज के नाम पर जहां अभी भी बहुत बड़ी जनसंख्या झाड़फूंक करवाने को विवश हो, इलाज के लिए अभी भी झोलाछाप डॉक्टर अभी भी भगवान की तरह से दिखता हो…..आदि-आदि-आदि….वहां हमारे नेताओं को विकास के लिए पैमाना मोबाइल के रूप में, कार के रूप में, इमारतों के रूप में, सड़कों के रूप में दिख रहा है।

नेताओं को इस बात को समझना होगा कि जनता बहुत दिनों तक नेताओं के सहारे नहीं रहेगी। देश से अंग्रेजों को भगाने के लिए बस एक आन्दोलन की जरूरत पड़ी थी उसके बाद तो अंग्रेजों को भागना ही पड़ा था। देश में सत्ता चला रहे ये काले अंग्रेज नहीं संभले तो किसी न किसी दिन देश की जनता उसे भी भागने को मजबूर कर देगी। समझना इस बात को भी चाहिए कि विदेशी अंग्रेजों को तो भागने के लिए विदेश के बाहर भी रास्ता था, सीमा के बाहर भी रास्ता था पर इन काले अंग्रेजों को तो इसी देश में रहना है, वे भागेंगे तो कहां तक और कब तक?

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