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बचपन के दिनों को आज भी जब याद करते हैं तो उस मासूम से प्रेम का एहसास होता है जो उस समय यह भी नहीं जानता था कि प्रेम क्या है, प्यार किसे कहते हैं। उन दिनों की याद आज भी मन को उल्लासित करती रहती है। मन में, विचारों में, बातचीत में, भावनाओं में किसी तरह का स्वार्थ नहीं दिखता था। मन उतना ही साफ रहता था जितना सोचा जाना आज के स्वार्थमय संसार में सोचना भी सम्भव नहीं लगता है।
बचपन के उन सुहाने दिनों में हम भी अपने छोटे-छोटे दोस्तों के साथ मस्ती में धमाल किया करते थे। आज के बच्चों की तरह हमारे सामने न तो बस्तों का बोझ था और न ही किसी तरह की मेरिट में आने का दवाब। हम तो उन दिनों में पढ़ाई को भी खेल की तरह से लिया करते थे। इसी खेल के दिनों में अपने साथ के कुछ दोस्तों के साथ एक प्रकार का लगाव भी हो गया था।
सब कुछ उस समय के साथ था जबकि आधुनिकता का चलन सम्बन्धों और रिश्तों पर नहीं पड़ा था। टी0वी0 की रंगीन दुनिया हमारे साथ नहीं थी इस कारण से यह भी नहीं पता था कि अपने साथ खेलने वाली लड़की के प्रति आकर्षण को आज की भाषा में प्रेम कहा जा सकता है। स्कूल के समय तो साथ रहता ही था, स्कूल की छुट्टी होने के बाद भी शाम का खेलना उसी लड़की के आसपास होता रहता था।
हुल्लड़ मचाते, धमाल काटते हुए, बिना इस बात की परवाह किये कि हमारे आसपास क्या हो रहा है हम अपने आपमें ही मगन रहते हुए बचपन का आनन्द उठ रहे थे। इन सुहाने और मासूम से दिनों में हमारे बीच उपहारों का आदान-प्रदान भी हुआ करता था। आज जब उन उपहारों में से बचे हुए कुछ उपहारों को देखते हैं तो आज के समय से तुलना करने पर मन्द-मन्द मुस्कान उभर कर होंठों पर आ जाती है।
हमारे उपहारों में समाचार-पत्रों में, किसी पुरानी पत्रिका से काटे गये सुन्दर से चित्रों को कागज पर चिपका कर बनाये गये ग्रीटिंग कार्ड हुआ करते थे। कभी फूलों की पत्तियों को विभिन्न आकृतियों में सजाने और कभी पत्तों को सजा कर मित्रों को प्रसन्न कर देने का प्रयत्न हुआ करता था। उपहारों का यह आदान-प्रदान सदैव इतना ही मासूम सा रहता था। इस तरह के उपहार देते समय याद रहता था कि किसे कौन सी चीज, कौन सा फूल अच्छा लगता है; किसको कौन सा खिलाड़ी पसंद है, किसे किस तरह की आकृति मजा देगी।
समय गुजरता रहा, स्कूल का समय भी बीता और हम दोनों प्राथमिक शिक्षा से निकल माध्यमिक तथा उच्च शिक्षा के लिए अलग-अलग रास्तों पर चल पड़े। जिस समय हम स्कूल छोड़ रहे थे उस दिन हमारी आँखों में आँसू थे। मन दुखी था किन्तु बहुत ज्यादा दर्द दिल में नहीं था। इसका कारण था कि हमें अभी भी अपने शहर में रहना था। हमारी दिनचर्या अभी भी वैसी ही चल रही थी। स्कूल भले ही अलग-अलग हो गये हों किन्तु हमने शाम का साथ खेलना बन्द नहीं किया। इस दौरान हमारे आपस में उपहारों का, भावनाओं का आदान-प्रदान होता रहा।
इस मासूमियत भरी प्यार भरी दुनिया में उस समय एक खालीपन सा भर गया जब एक शाम को पता चला कि हमारी दोस्त को अब शहर छोड़कर जाना है। उसके पिता का स्थानान्तरण दूसरे शहर में होने के कारण उसे हमसे दूर जाना पड़ा। स्कूल छोड़ने के समय का कष्ट अब दर्द में बदल रहा था। आँखों में आँसू तो थे ही दिल में भी दर्द सा था। अब लग रहा था कि अपने दोस्त से कभी मिल पाना नहीं होगा।
आज इस घटना के लगभग 25 वर्ष से अधिक होने के बाद भी लगता है जैसे कल की ही बात हो। आज भी हमारी पुरानी संग्रह की हुई वस्तुओं में, उपहारों में कुछ तस्वीरें, कुछ फूलों की बनी आकृतियाँ सहेजी हुई हैं जो अकेलेपन में उस दोस्त की याद आती है तो इन उपहारों के द्वारा उसे याद कर लेते हैं। उस दोस्त से आज तक कहीं भी मुलाकात नहीं हो सकी किन्तु वह किसी न किसी रूप में हमारे साथ ही है। आज इतने दिनों के बाद भी उस दोस्त के एक प्रकार की याद सी, एक स्मृति सी बसी रहती है, यह स्थिति कभी-कभी सोचने पर मजबूर करती है कि क्या इसी को प्यार कहते हैं? क्या हमें अपनी उस दोस्त से प्रेम हो गया था और क्या आज भी है?
आज जिस तरह से प्यार के पैमाने बदल रहे हैं, दोस्तों के और दोस्ती के मायने बदल रहे हैं, प्यार के नाम पर अलग नजारे दिख रहे हैं ऐसे में लगता है कि उस मासूम से रिश्ते को प्यार का नाम देकर उसकी पावनता को समाप्त करना उचित नहीं। यह कहीं न कहीं बचपन की उस पावन दोस्ती के साथ, मासूम सी भावनाओं के साथ नाइंसाफी ही होगी। काश! आज के प्यार करने वाले युवा उस बचपने के प्यार का, दोस्ती का मर्म समझकर अपने रिश्ते को प्यार का नाम देते।
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