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ऐसा माना जाता रहा है कि पढ़-लिखकर व्यक्ति विमर्श करने की क्षमता का विकास कर लेता है. वह तथ्यों और प्रमाणों के आधार पर तर्कशील बन जाता है. ऐसे बहुत से उदाहरण देखने में आये हैं, जब ऐसा हुआ भी है. शिक्षित व्यक्तियों ने अपने ज्ञान के आधार पर तर्कों पर तमाम निष्कर्षों को कसा है. इधर तकनीकी विकास के साथ साक्षर होती पीढ़ी ने तकनीकी का सहारा लेकर कुछ कर-गुजरने वाली मानसिकता ने शिक्षित होने, साक्षर होने के बाद तर्क-वितर्क को कुतर्क के रास्ते पर उतार दिया है. इस तर्क-वितर्क में बहुधा महिलाओं से सम्बंधित मुद्दे, महिलाओं से सम्बंधित विषय ज्यादा सामने आने लगे हैं. इन विषयों पर, मामलों पर कुतर्क जैसी स्थितियाँ न केवल पुरुषों द्वारा, बल्कि स्त्रियों द्वारा भी अपनाई जा रही हैं.
विगत कुछ समय से स्त्री-विषयक बहसें लगातार सामने आ रही हैं. समझ से परे है कि ये स्त्रियों को स्वतंत्रता का अधिकार का ज्ञान कराने के लिए हो रहा है या फिर उनकी स्वतंत्रता की आड़ में बाजार को सशक्त किया जा रहा है? कुछ दिनों पहले हैप्पी टू ब्लीड जैसा आन्दोलन चला. जिसके द्वारा महिलाओं की माहवारी को केंद्र में रखा गया. कुछ अतिजागरूक महिलाओं ने खुद को इस आन्दोलन में सूत्रधार की तरह से आगे धकेलते हुए माहवारी के दाग के साथ खुद को प्रदर्शित किया.
इस हैप्पीनेस को पाने के बाद इन्हीं आन्दोलनरत महिलाओं ने सेनेटरी पैड के मुद्दे को हवा देने का काम किया. इस बार इनका मुद्दा सस्ते पैड नहीं वरन इन पैड के विज्ञापनों में दिखाए जा रहे नीले रंग को लेकर था. आखिर जब खून लाल रंग का होता है तो फिर पैड के विज्ञापन में नीला रंग क्यों? वाकई स्त्री-सशक्तिकरण के नाम पर धब्बा था ये नीला रंग. आखिर लाल को नीले से परिवर्तित करके पुरुष महिलाओं को रंगों के अधीन भी लाना चाहता होगा.
अब एक नई बहस छिड़ी हुई है स्तनपान को लेकर. एक पत्रिका के कवर पर स्तनपान कराती मॉडल का चित्र बहुतों के लिए अशोभनीय रहा, बहुतों के लिए मातृत्व का परिचायक. इस मॉडल के मातृत्व के पक्ष में बहुतों ने न केवल हिन्दू धार्मिक उदाहरणों को सामने रखा वरन विदेशी संसद की कुछ महिलाओं के उदाहरण भी दिए. इस तरह की चर्चा लगभग दो-तीन साल पहले उस समय भी छिड़ी थी जब कुछ मॉडल्स ने नग्न, अर्धनग्न रूप में स्तनपान कराते हुए फोटोसेशन करवाया था.
बहरहाल, स्तनपान किसी भी महिला के जीवन का सुखद क्षण होता है, सुखद अनुभूति होती है. स्तनपान के द्वारा वह न केवल अपने शिशु को भोजन दे रही होती है, वरन उस शिशु के साथ गहरा तादाम्य स्थापित कर रही होती है. उन पावन क्षणों को जिन महिलाओं और पुरुषों ने पावनता के रूप में देखने की कोशिश की होगी, उनको इसका अनुभव होगा कि उस क्षण जहाँ शिशु के हाथ-पैर माता के स्तन से खेल रहे होते हैं, वहीं माता के हाथ उसके सिर पर आशीष-रूप बने रहते हैं. इस दौरान उन माताओं के हावभाव कम से कम इस पत्रिका की मॉडल जैसी भाव-भंगिमा जैसे नहीं होते हैं. उनके चेहरे की आत्मीयता, संतुष्टि का भाव इसके चेहरे जैसा कामुक नहीं होता है.
असल में बाजार ने महिलाओं को आधुनिकता के नाम पर उत्पाद बनाकर रख दिया है. स्त्री-सशक्तिकरण से जुड़ी महिलाएं, अपने आपको मंचों के सहारे महिलाओं की अगुआ बताने वाली महिलाएं, ऐसे किसी भी मामले के लिए पुरुष को दोषी ठहराएँ मगर सत्य यही है कि आज महिलाएं स्वतः बाजार के हाथ की कठपुतली बनती जा रही है. न केवल महिलाओं से जुड़े उत्पादों में वरन पुरुषों से जुड़े उत्पादों में भी स्त्री-देह निखरकर सामने आ रही है. विज्ञापनों में महिलाओं को विशुद्ध कामुकता की पुतली बनाकर पेश करने की होड़ लगी हुई है.
वर्तमान में उठा स्तनपान का ये मुद्दा विशुद्ध बाजारीकरण की देन है. इन्हें न माता से मतलब है, न शिशु से मतलब है और न ही स्तनपान से. बाजार के लिए बस अपने उत्पादों का विक्रय अनिवार्य है. किसी न किसी कीमत पर उनको बेचना उनकी प्राथमिकता है. अब इसके लिए चाहे हैप्पी टू ब्लीड के दाग हों, चाहे पैड का नीला-लाल रंग हो, अगरबत्ती में छिपी मादकता हो या फिर स्तनपान के द्वारा स्त्री-देह का प्रदर्शन हो. मातृत्व की आड़ में सामने लाये गए, बहस का विषय बनाये गए, स्तनपान के बाद देखिये बाजार किस-किस गोपन को अगोपन बनाकर सामने लाता है?
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