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विकास की अंधी दौड़ में शिक्षक प्रकाश स्तम्भ समान

मुद्दे की बात, कुमारेन्द्र के साथ
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समाज ने लगातार विकास के नए-नए आयामों को प्राप्त किया है. कई-कई नए-नए मानक स्थापित भी किये हैं. इन्हीं में एक मानक शिक्षा के क्षेत्र में भी स्थापित किया गया है. इक्कीसवीं सदी तक आते-आते शिक्षा क्षेत्र में कई महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए, कई अत्यावश्यक कदमों को उठाया गया. शिक्षा व्यवस्था ने कई तरह के परिवर्तनों को देखते-समझते हुए अपना स्वरूप भी बदला. आज शिक्षा व्यवस्था गुरुकुल पद्वति से निकल कर ई-लर्निंग तक आ गई है. उसके द्वारा कितना भी विकास कर लिया गया हो, इसके बाद भी समाज से शिक्षकों की महत्ता कम नहीं मानी जा सकती है. तकनीकी विकास ने संस्थागत अनेकानेक बिन्दुओं को दरकिनार कर दिया हो किन्तु इससे शिक्षकों की जिम्मेवारियाँ और उनका दायित्वों पर नकारात्मक असर नहीं हुआ है. वे समय के साथ कम नहीं हुई हैं वरन बढ़ी ही हैं. एक समय जबकि तकनीकी विकास आज की तरह नहीं था तब शिक्षकों के पास अपने विद्यार्थियों की समस्त प्रकार की समस्याओं के समाधान करने की महती जिम्मेवारी हुआ करती थी. आज जबकि तकनीकी विकास हाथों-हाथों में मोबाइल, लैपटॉप के माध्यम से सुसज्जित है तब भी शिक्षकों की जिम्मेवारी अत्यंत महत्त्वपूर्ण है.

किसी भी शिक्षक के लिए उसका दायित्व सिर्फ पाठ्यक्रम को पूरा करवा देना मात्र नहीं है और होना भी नहीं चाहिए. प्राथमिक स्तर से लेकर उच्च स्तरीय शिक्षा के समस्त सोपानों में एक विद्यार्थी का साथ अबसे अधिक एक शिक्षक के साथ ही रहता है. ऐसे में किसी भी स्तर के शिक्षक की जिम्मेवारी बनती है कि वह भावी पीढ़ी को राष्ट्र-निर्माण की दिशा में कार्य करने की मानसिकता से निर्मित करे. यह विचार करना शायद आज किसी के लिए संभव नहीं हो पा रहा है कि अध्यापन कार्य किसी तरह के व्यवसाय से सम्बंधित करके कभी नहीं देखा गया है. इसके पीछे की मूल भावना सिर्फ इतनी थी कि एक शिक्षक किसी तरह का उत्पाद निर्मित नहीं करता है वरन वह ए नागरिक तैयार करता है, एक व्यक्तित्व का विकास करता है. ऐसे में उसके कार्यों, उसकी भावना, उसकी मानसिकता का प्रभाव उसके विद्यार्थियों पर पड़ता है. किसी भी शिक्षक को अपना आदर्श मानकर एक विद्यार्थी उससे बहुत कुछ सीखता है. उसकी कही बातों को गाँठ बांधकर जिंदगी भर उन पर अमल करने की कोशिश करता है.

आज जबकि तकनीकी विकास के दौर में ई-लर्निंग, ई-मैटर आदि के द्वारा शिक्षा देने की बात होने लगी है. वीडियो कांफ्रेंसिंग के साथ-साथ ऑनलाइन शिक्षा की अवधारणा ने यह साबित करने का प्रयास किया है कि शिक्षक का कार्य विशुद्ध रूप से अपने पाठ्यक्रम को पूरा करवा देना, विद्यार्थियों की परीक्षा लेना, उनकी उत्तर-पुस्तिका जाँचकर अंक देना रह गया है. वैश्वीकरण के आधुनिक दौर में कम्प्यूटर, मोबाइल, पॉवर पॉइंट प्रेजेंटेशन, ई-मेल, मैसेज, सोशल-मीडिया आदि को शिक्षक माना-समझा जाने लगा है. ये किसी भी शिक्षक के सहायक उपकरण तो सिद्ध हो सकते हैं न कि किसी शिक्षक के स्थान पर स्वीकार्य हो सकते हैं. भारतीय संस्कृति, सांस्कृतिक व्यवस्था में किसी भी व्यक्ति के लिए शिक्षा लेने का अर्थ सिर्फ पाठ्यक्रमों का पूरा कर लेना मात्र कभी नहीं रहा है. यही कारण है कि शिक्षा व्यवस्था के किसी भी चरण में नैतिक शिक्षा, शारीरिक शिक्षा, हमारे पूर्वजों के बारे में शिक्षा आदि को भी साथ-साथ दिया जाता रहा है. ऐसा माना जाता रहा है कि एक शिक्षक अपने पाठ्यक्रम के साथ-साथ अपने विद्यार्थियों में समाज के प्रति सेवा-भावना, राष्ट्र के प्रति जिम्मेवारी का भाव, प्राणीमात्र के लिए परोपकार की भावना, संगठन-शक्ति का विकास, सामूहिकता की स्वीकार्यता आदि गुणों का विकास भी करता है. ऐसे में समझना कतई मुश्किल नहीं है कि मशीनी संस्कृति, मशीनी शिक्षा के द्वारा विषय-सामग्री की उपलब्धता तो हो सकती है किन्तु उससे सम्बंधित विषय पर ज्ञान मिलेगा, ऐसा कहा नहीं जा सकता है.

मशीनीकृत शिक्षा व्यवस्था, ऑनलाइन क्लासेज या फिर कांफ्रेंसिंग के जरिये किसी विषय को सहजता से समझाया भले ही जा सकता हो किन्तु किसी व्यक्ति में उसके व्यावहारिक लक्षणों का विकास नहीं किया जा सकता है. तकनीकी रूप से मशीनी शिक्षा के प्रति आसक्ति ने विद्यार्थियों में सहनशीलता, सामूहिकता, सांगठनिकता, बड़ों के प्रति सम्मान, समाज के प्रति दायित्व-बोध, परोपकार की भावना आदि को कम करने के साथ-साथ लगभग समाप्त ही किया है. ऐसा होने के कारण आज समाज में बच्चों को, नवयुवकों को बड़ी संख्या में अवसाद में जाते देखा जा सकता है. नवयुवकों की बहुत बड़ी संख्या नशे की गिरफ्त में जा रही है. जरा-जरा सी बात में नाकामी मिलने पर निराशा छा जाना और उसकी तीव्रता इतनी बढ़ जाना कि उनका आत्महत्या करने को प्रवृत्त होना आदि आज आम होता जा रहा है. ये समझने वाली बात है कि आखिर ऐसा हो क्यों रहा है? आज लोगों की जीवन-शैली तकनीकी रूप से, भौतिक रूप से पहले से कहीं अधिक संपन्न हुई है. लोगों को अपने मनमाफिक कार्यक्षमता के अनुसार कार्य करने की स्वतंत्रता भी प्राप्त हुई है. ऐसे में समाज में शिक्षकों के प्रति गंभीरता का भाव समाप्त भले ही न हुआ हो किन्तु कम अवश्य हुआ है. तकनीक को सर्वस्व मानने वालों के लिए एक शिक्षक का महत्त्व संस्थान स्तर पर कार्य करने वाले व्यक्ति जितना रह गया है. तकनीक को हाथ में लिए घूमने वाली पीढ़ी को लगता है कि वह अपने साथ ज्ञान का सीमित भंडार लेकर चल रहा है, ऐसे में उसे किसी शिक्षक की आवश्यकता नहीं है. देखा जाये तो किसी भी तरह का तकनीकी विकास किसी भी शिक्षक की महत्ता को कम नहीं कर सकता है. किसी भी शिक्षक की स्थान-पूर्ति नहीं कर सकता है.

मशीन ज्ञान दे सकती है किन्तु आत्मविश्वास नहीं जगा सकती. ऑनलाइन शिक्षा किसी भी विषय पर सामग्री की उपलब्धता सहज करवा सकती है किन्तु उसके व्यावहारिक पक्षों से परिचित नहीं करा सकती. ई-लर्निंग से घर बैठे विषय से सम्बंधित जानकारी मिल सकती है किन्तु उसकी अभिव्यक्ति का तरीका नहीं मिल सकता. किसी समय में तकनीक के, सामग्री के, पुस्तकों आदि के अभाव ने शिक्षकों की महत्ता को स्थापित किया होगा किन्तु आज तकनीकी विकास के दौर में भी शिक्षकों का होना अनिवार्य है. बचपन से संस्कार, आत्मविश्वास, जिज्ञासा, सामूहिकता, समन्यव, सहयोग आदि की जिस भावना का विकास एक शिक्षक करता है वह किसी और के द्वारा नहीं हो सकता है. यही कारण है कि आज भी बच्चों को विद्यालय भेजने की परंपरा का निर्वहन सभी के द्वारा किया जा रहा है, भले ही वह उच्च स्तरीय शिक्षा व्यवस्था को अपनी भौतिकता के चलते घर में स्थापित करवा सकता हो. तकनीक के साथ विकास करते समाज को शिक्षकों के महत्त्व को समझते हुए नई पीढ़ी को भी इनके महत्त्व को समझाना होगा.

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