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संशोधन बिल से किसका भला होगा?

मुद्दे की बात, कुमारेन्द्र के साथ
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अंततः केंद्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय के आदेश को पलटते हुए एससी/एसटी एक्ट में संशोधन विधेयक लोकसभा में पारित करवा ही दिया. सर्वोच्च न्यायालय द्वारा किसी दलित व्यक्ति द्वारा शिकायत के बाद तत्काल सवर्ण की गिरफ़्तारी पर रोक लगाने का आदेश दिया था. अदालत के इस आदेश को गैर-भाजपाई दलों ने, दलित संगठनों ने मोदी का, केंद्र सरकार का आदेश साबित करते हुए केंद्र सरकार पर अनावश्यक दबाव बना डाला. केंद्र की सत्ताधारी भाजपा के अन्दर भी इस आदेश के प्रति असंतोष दिखाई दिया. अदालत के आदेश को नकारात्मक रूप में समाज में प्रस्तुत किया गया. ऐसे दर्शाया गया जैसे इस अधिनियम को समाप्त ही कर दिया गया है. इसके बाद तो खुलेआम और गुपचुप ढंग से सरकार के खिलाफ लामबंदी की जाने लगी. आगामी चुनाव को देखते हुए केंद्र सरकार ने हथियार डालते हुए दलितों की रक्षा करने का मन बनाया.

इस अधिनियम में संशोधन के बाद इसका कितना उपयोग, दुरुपयोग दलित कर पायेंगे, इस अधिनियम के चलते कितने सवर्ण फंसेंगे, कितने बचेंगे ये तो बाद की बात है मगर यह तय है कि नब्बे के दशक में आरक्षण के लागू होने के बाद बनी सवर्ण-दलित की खाई को एक बार फिर गहरा कर दिया गया है. जातिगत भावना से समाज में विभेद की, भेदभाव की बात करने वाले भी इस संशोधन बिल की वकालत करते देखे जा रहे हैं. विगत कई वर्षों की जातिगत राजनीति देखने-समझने के बाद एक बात तो स्पष्ट है कि इस देश से जातिगत स्थिति कभी समाप्त होने वाली नहीं है. दलित वर्ग के बहुतेरे लोगों में भले ही आरक्षण के सहारे आगे बढ़ने की मानसिकता का विकास न हुआ हो मगर अपने नाम के साथ किसी सवर्ण की उपजाति लगाने का लोभ संवरण नहीं होता है. इसी तरह सवर्ण वर्ग के बहुत से लोगों में भले ही दलितों के प्रति सकारात्मक भावना का विकास न हुआ हो मगर आरक्षण की मलाई चाटने के लिए वे खुद को अन्य पिछड़ा वर्ग अथवा दलित वर्ग में शामिल करवाने को तैयार हैं. इस तरह की स्थिति के बीच अब इस संशोधन बिल के बाद की स्थितियाँ विकट नहीं तो कम से कम सुखदायी नहीं होने वाली.

राजनैतिक दल इसका अपने चुनावी समीकरणों के उपयोग करेंगे और वहीं दलित वर्ग के बहुतेरे ईर्ष्यालु, विद्वेषपूर्ण मानसिकता वाले लोग इसका दुरुपयोग सवर्णों को जबरन फँसाने में करेंगे. राजनैतिक दलों में भाजपा जहाँ इसी संशोधन बिल के द्वारा दलित वोटों को एपीआई तरफ खींचने की कोशिश करेगी वहीं, गैर-भाजपाई दल इसके द्वारा दलित वोटों को अपनी तरफ यह दिखाकर लाने का प्रयास करेंगे कि उनके दबाव के कारण ही यह संशोधन बिल सामने आ सका. भाजपा-विरोधी दल संगठित रूप से अदालत के फैसले को सरकार की मंशा बताने में सफलता प्राप्त कर ही चुके हैं, ऐसे में उनके लिए इस संशोधन बिल का राजनैतिक लाभ और ज्यादा ले पाना आसान हो गया है. यदि ऐसा होता है तो यह कदम भाजपा के लिए आत्मघाती सिद्ध होगा. इसके अलावा समाज में विद्वेष बढ़ने के भी आसार नजर आते हैं. अदालत के आदेश के बाद जिस तरह से दलित संगठनों ने, भाजपा-विरोधी दलों ने भारत बंद के दौरान हिंसात्मक प्रदर्शन किये थे, वे सिवाय विद्वेष की भावना के और कुछ नहीं थे. अनुसूचित जाति/जनजाति अधिनियम के दुरुपयोग के एक नहीं अनेक उदाहरण हैं जिनके कारण ही सर्वोच्च न्यायालय को तत्काल गिरफ़्तारी न करने का आदेश पारित करना पड़ा था. बहरहाल, केंद्र सरकार ने अपना चुनावी दाँव खेल दिया है. लोकसभा में जितनी सहजता से यह बिल पारित हो गया, उतनी ही सहजता से यह राज्यसभा में पारित हो जायेगा. महामहिम राष्ट्रपति की तरफ से भी इसके रोके जाने की कोई आशंका नहीं है. इसके लागू होने के बाद देखना यह है कि कौन किस स्तर तक जाकर इसका उपयोग वास्तविक रूप में करता है.

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