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अब नहीं वो नवरात्रि आयोजन

मुद्दे की बात, कुमारेन्द्र के साथ
मुद्दे की बात, कुमारेन्द्र के साथ
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घर में जैसे ही साफ़-सफाई जोर-शोर से होने लगती; बरामदा रगड़-रगड़ कर धोया जाने लगता; अम्मा की सक्रियता आम दिनों की अपेक्षा और अधिक दिखाई देती तो समझ में आने लगता कि नवरात्रि का पावन पर्व आने वाला है. हम बच्चों में भी उत्साह झलकने लगता. इसका कारण उन नौ दिनों में देर रात तक जागने, मोहल्ले में टहलने की स्वतंत्रता मिल जाना होता था. ये आज से कोई तीस साल पहले की बात होगी, उस समय आज की तरह जगह-जगह झाँकियाँ सजाने का रिवाज नहीं था. आज की तरह कानफोडू संगीत नहीं था, भजन में फ़िल्मी गीतों का आभास नहीं था. घरों में आँगन में, बरामदे के कोने में कागज की बेलों, फूलों आदि के द्वारा मातारानी के स्थान को सजाया जाता था. पूरे नौ दिनों तक पूर्ण भक्तिभाव से घर की, पड़ोस की महिलाओं द्वारा ढोलक, मंजीरा, घुँघरू, झाँझ आदि की मधुर धुन पर लोकगीतों, भजनों, अचरी, देवी गीतों आदि का गायन होता था.
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हम बच्चे नवरात्रि के इस आयोजन में पूर्ण भक्तिभाव दिखाते. हाँ, इस भक्तिभाव में सुबह का स्नान शामिल नहीं हुआ करता था. सुबह की हलकी सुनहली ठंडक स्नान करने से रोकने में हम बच्चों की मदद भी करती. (ऐसा भक्तिभाव चैत्र नवदुर्गा के समय बनाये रखना लगभग मुश्किल हो जाया करता था.) इस एक काम के अलावा भक्तिभावना अपने चरम पर होती. देवी स्थान को सजाने में, जवारों पर दूध-पानी चढ़ाने में, प्रसाद बाँटने में, मोहल्ले की दादी, चाची, बुआ, भाभी, जिज्जी आदि के साथ देवी गीत गाने में, बिना सुर-लय-ताल ढोलक-मंजीरे-झाँझ आदि को पीटने में भक्ति-भावना सबसे ऊपर होती थी. देर रात तक नवदुर्गा पूजन के बहाने से जागना, कभी किसी को बुलाने के लिए मोहल्ले के कई-कई चक्कर लगा लेने की स्वतंत्रता शेष दिनों में नहीं मिलती थी. एक वर्ष में नौ-नौ दिनों के ये दो अवसर जिंदगी के बेहतरीन दिनों में गिने जा सकते हैं. नन्हे-नन्हे हाथों में भारी-भरकम सी टॉर्च सँभाले मोहल्ले भर का अँधेरा मिटाते घूमते. घर-परिवार के लोग भी निश्चिंतता से अपने-अपने कार्यों में मगन रहते और हम बच्चों की टोली पूरी निर्भीकता से घूमती-टहलती रहती. याद नहीं पड़ता कि किसी भी एक पल को किसी बच्चे के मन में भय उपजा हो; किसी बात का डर पैदा हुआ हो. बच्चों में ही क्या, किसी भी घर के किसी भी व्यक्ति में भी संदेह, आशंका जैसी कोई स्थिति कभी नहीं जन्मी. न किसी बच्ची के साथ दुराचार का डर, न किसी बच्चे के अपहरण का भय, न किसी मासूम की जान को खतरा.
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आज गली-गली में बड़े-बड़े, भव्य पंडाल सजे हैं, कई-कई युवा सम्पूर्ण व्यवस्था को सुचारू रूप से, व्यवस्थित ढंग से अंज़ाम दे रहे हैं मगर हमारी तरह से बच्चों की टोलियाँ किसी भी मोहल्ले में घूमती-दौड़ती नहीं दिखती है; हमारे समय की मोहल्ले की दादियाँ कहीं दूर आसमान में सितारा बनकर चमक रही हैं; चाचियाँ हमारे चाचाओं के साथ या तो शहर से दूर हैं या फिर आजकल दादी बनी समय बिता रही हैं; भाभियाँ सास बनकर रुतबा दिखाने में मगन हैं, बुआ-जिज्जियाँ किसी और की चाची, भाभी बनकर किसी और शहर में माँ दुर्गा के आयोजन में व्यस्त हैं. अब नौ दिन तक घर के किसी कोने को मिट्टी, जवारों, कलश, माँ दुर्गा की मूर्ति, जलते दीपकों आदि से घेरे रखना जगह की बर्बादी मानी जाने लगी है. सीडी, कैसेट, डीजे आदि के युग में ढोलक, मंजीरे, घुँघरू आदि के साथ लोकगीत, अचरी, भजन, देवीगीत आदि को उबाऊ माना जाने लगा है. बच्चों का मोहल्ले की छोडिये, अपने ही घर के सामने अकेले निकलना जुर्म समझा जाने लगा है. भय, अनिश्चितता, आशंका, संदेह आदि के वातावरण में नवदुर्गा का आयोजन कुछ लोगों द्वारा महज परम्परा निर्वहन के लिए हो रहा है तो कुछ लोगों द्वारा व्यापारिक दृष्टिकोण के लिए. जब आपस में मन से मन, दिल से दिल नहीं मिले हैं; अविश्वास का माहौल अपने चरम पर है; भक्ति-भावना का स्थान औपचारिकता ने ले लिया हो तो ऐसे आयोजनों से पावनता गायब दिखती है. यही कारण है कि बड़े-बड़े, भव्य दुर्गा पंडालों से तेज चीखते भजन भक्ति-भावना जगाने के स्थान पर ‘सरकाए लेओ खटिया, जाड़ा लगे’ की तर्ज़ और उस पर मटकते फ़िल्मी हीरो-हीरोइन का भाव उत्पन्न करने लगते हैं.

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