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दर्द, ये एक ऐसा शब्द है जो प्रत्येक व्यक्ति के साथ जुड़ा हुआ है. अमीर हो या गरीब, राजा हो या रंक, नेता हो या जनता, मालिक हो या नौकर, रोजगारपरक हो या बेरोजगार, किसान हो या उद्योगपति या अन्य कोई भी सबका दर्द से सामना होता ही है. दर्द के भी अपने अलग-अलग फलसफे हैं. कोई किसी दर्द से पीड़ित है तो कोई किसी दूसरे दर्द से. कोई तन के दर्द से दोहरा हुआ जा रहा है कोई मन के दर्द से पीड़ित है. किसी को दिमागी दर्द है तो कोई दिल के दर्द से परेशान है. किसी के बोलने में दर्द है, किसी की ख़ामोशी में दर्द है. कोई गीत गाकर अपने दर्द को बयां कर रहा है तो कोई ग़ज़ल लिखकर अपने दर्द की अभिव्यक्ति कर रहा है. आखिर एक दर्द के अनगिनत अफसाने कहाँ से, कैसे और किसने बनाये? चिकित्सा विज्ञान में भले ही दर्द को शारीरिकता से जोड़कर देखा जाता है मगर उसके अलावा जहाँ भी इसको परिभाषित किया गया है वहां इसका सम्बन्ध मन से, दिल-दिमाग से बताया गया है.
समझने वाली बात है कि दर्द अपने आपमें एक कटु अनुभव, एक पीड़ादायक अनुभव है. दर्द विशुद्ध रूप से संवेदनात्मकता, भावनात्मकता से जुड़ा हुआ है. दैहिक रूप से दर्द की अनुभूति हो या फिर मानसिक रूप से इसका आभास हो, सभी किसी न किसी रूप में संवेदनात्मकता से ही जुड़े हुए हैं. वैसे इधर देखने में आया है कि दर्द की वर्तमान अनुभूति शरीर से ज्यादा मन से, दिल-दिमाग से जुड़ गई है. लोगों के रहन-सहन में सामान्य स्तर की जगह से विशेषीकरण का प्रभाव बढ़ने लगा है. ऐसे में दिल-दिमाग किसी भी परिस्थिति को सामान्य रूप से स्वीकार करने में असफल हो रहे हैं. यही असफलता दर्द को बढ़ा रही है. चिकित्सा विज्ञान में तो इसका कोई इलाज है नहीं संभव है कि मनोविज्ञान में इसका कोई इलाज हो. वैसे दर्द की अनुभूतियाँ भी स्थिति-परिस्थिति के अनुसार अलग-अलग भी होती हैं. दर्द किसी भी तरह का हो यदि वह किसी अपने से जुड़ा हुआ है तो उसकी संवेदनात्मकता, उसकी भावनात्मकता कहीं गहराई तक होगी. ऐसा नहीं है किसी गैर के दर्द को देखकर खुद को दर्द की अनुभूति कम हो. संभव है कि यहाँ भी दर्द का स्तर उसी बिंदु पर आकर स्थिर हो जाये जहाँ किसी अपने के कारण स्थिर हुआ था. ऐसी स्थितियों के कारण ही दर्द, चाहे वह शरीर में उपजा हो अथवा मन में या फिर किसी की अनुभूति से उसका सीधा सा सम्बन्ध भावना से है.
चोट खाने से भी दर्द की अनुभूति होती है, किसी सौन्दर्यबोध से भरी हुई विरोग रचना को सुन-पढ़-देख कर भी दर्द की अनुभूति होती है. ऐसे किसी भी दर्द के पीछे का मूल कारण इन्सान का भावनात्मक होना है. तो फिर सवाल उठता है कि क्या जानवरों को दर्द नहीं होता? यदि जानवरों का दर्द सिर्फ शारीरिक है तो भी सवाल वहीं का वहीं कि क्या उनको मानसिक दर्द नहीं होता है? जानवरों या कहें कि पशु-पक्षियों के व्यवहार को देखें तो साफ समझ आता है कि वे अपने साथी के लिए संवेदी रूप से सक्रिय रहते हैं. ये भले ही कहा जाये कि दिमागी रूप से कुछ जानवर ही सक्षम हैं मगर संवेदनात्मक रूप से सभी पशु-पक्षी समान भाव से सक्रिय रहते हैं. एक पल को शारीरिक दर्द की स्थिति से इतर सिर्फ मानसिक दर्द की बात की जाये तो यह भी स्पष्ट है कि मिलने-बिछड़ने का, सुख-दुःख का, हँसी-उदासी का अपना-अपना दर्द जितना इंसानों में महसूस किया जाता है उतना ही पशु-पक्षियों में देखने को मिलता है. स्पष्ट है कि दर्द का रिश्ता विशुद्ध रूप से संवेदनाओं का है. संवेदनात्मक रूप से जिस तरह से सामाजिक ताना-बाना आज छिन्न-भिन्न होता दिख रहा है, उतनी तेजी से दर्द का रिश्ता भी टूटता जा रहा है. आज कोई भले कहे कि वह दिल के, दिमाग के, अपनों के दिए धोखे के या फिर जीवन की किसी भी स्थिति के चलते दर्द को झेल रहा है, सह रहा है लेकिन यह नितांत झूठ है. आज जिस तरह की जीवन-शैली इंसानों ने अपना रखी है, उसमें वह दर्द नहीं बल्कि तन्हाई सह रहा है, एकांतवास झेल रहा है, अकेलेपन से जूझ रहा है. देखा जाये तो दर्द वह मीठा सा एहसास है जो उसे समाप्त करने के लिए इन्सान को, जीवन को सक्रिय बनाता है, हँसना सिखाता है, रुलाता नहीं है, निष्क्रिय नहीं बनाता.
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