- 547 Posts
- 1118 Comments
लोकसभा चुनाव की आहट सुनाई देने लगी है. इस आहट को सुनकर सभी राजनैतिक दल अपने-अपने हथकंडे आजमाने की जुगत भिड़ाने लगे हैं. इन्हीं हथकंडों के रूप में एक सप्ताह में भारत ने दो भारत बंद का सामना किया. भारत बंद की इस राजनीति में क्रिया-प्रतिक्रिया का नियम परिलक्षित हुआ. उच्चतम न्यायालय के निर्णय के विरोध में शुरू हुए आन्दोलन को आहिस्ता से केंद्र सरकार विरोधी, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी विरोधी बना दिया गया. दलितों से सम्बंधित संगठनों और कुछ राजनैतिक दलों ने उच्चतम न्यायालय के निर्णय को अपने हथकंडों के रूप में परिभाषित किया और देश भर के तमाम दलितों के बीच सन्देश फैलाया कि उच्चतम न्यायालय ने केंद्र सरकार की मंशा से एससी/एसटी एक्ट को समाप्त कर दिया है. इसके साथ-साथ अब केंद्र सरकार आरक्षण को भी समाप्त करने की योजना बना रही है. इस तरह के कुत्सित प्रचार के चलते दलितों में असंतोष के साथ-साथ आक्रोश भी दिखाई देने लगा और उसकी परिणति दो अप्रैल को हुए भारत बंद के दौरान हिंसा के रूप में सामने आई. इसी हिंसा की प्रतिक्रिया के रूप में सोशल मीडिया को मंच बनाया गया जिसके चलते एक और नेतृत्वविहीन भारत बंद का भय देखने को मिला.
पहले दो अप्रैल को हुए भारत बंद और उसके साथ हुई हिंसा की बात कर ली जाये. आखिर ये दुष्प्रचार किसने किया कि एससी/एसटी एक्ट को समाप्त कर दिया गया है? इस दुष्प्रचार के पीछे किसकी सोच काम कर रही थी कि अगले कदम के रूप में केंद्र सरकार आरक्षण को समाप्त करने जा रही है? यहाँ देश भर के राजनीति का विश्लेषण करने वालों को, सोशल मीडिया पर उछल-कूद करने वालों को, बिना बात किसी भी बात को हवा देने वालों को विचार करना होगा कि वे अपने दुष्प्रचार के द्वारा करना क्या चाहते हैं? केंद्र सरकार क्या करने वाली है, चुनावों के पहले नरेन्द्र मोदी ने क्या कहा, किसने कौन सा बयान दिया इसे फोटोशॉप करने के बजाय मूल-रूप में सबको बताया जाये. किसी भी बात को कभी नरेन्द्र मोदी का बयान कह कर, किसी भी घटना को कभी केंद्र सरकार का कदम बताकर, किसी भी स्थिति को आगामी आशंका बताकर देश में जिस तरह से अराजकता का माहौल बनाया जा रहा है वह किसी के लिए भी सुखद नहीं है. इस तरह की कुत्सित नीति अपनाने वाले असल में राजनीति नहीं कर रहे हैं वरन देश को रसातल में ले जाने का रास्ता बना रहे हैं. कभी सबके खाते में पंद्रह लाख रुपये आने की बात, कभी पाकिस्तान पर हमला करने की बात, कभी कश्मीर, कभी अयोध्या, ये बातें किसी भी रूप में राजनीति नहीं हैं.
यहाँ समझने वाली बात ये है कि देश के सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के विरूद्ध असंतोष व्यक्त किया जा सकता है, उसके खिलाफ आन्दोलन भी किया जा सकता है, उसके निर्णय से असहमति भी बनाई जा सकती है पर ये किस संविधान में लिखा है कि किसी निर्णय के विरोध में सार्वजनिक संपत्ति को आग लगा दी जाए? किस दलित पुरोधा ने संविधान में उल्लेख किया है कि आन्दोलन के दौरान घर की बालकनी में खड़े युवा को गोली मार दी जाए? ये सब सोची-समझी साजिश का हिस्सा है, जिसका शिकार उन दलितों को आसानी से बना लिया गया है जो आज भी आरक्षण का लाभ लेने के इंतजार में हैं. उन दलितों के हाथों में झंडों के साथ-साथ हथियार थमा दिए गए हैं जो एससी/एसटी एक्ट होने के बाद आज भी प्रताड़ित हैं. सीधी सी बात है भारत बंद के दौरान हुई हिंसा का लाभ जिसे मिलना था, उसने पूरी रूपरेखा बनाई और एक सामान्य से निर्णय को इस तरह बढ़ा-चढ़ा कर बताया मानो देश में दलितों पर सिर्फ और सिर्फ अत्याचार ही होना है. ऐसी स्थिति में आकर इन्हीं दलितों को समझना होगा कि उनकी नेता मायावती ने जब इसी एक्ट में संशोधन करके किसी दलित की गवाही को अनिवार्य किया था तब किसी नेता ने, किसी दलित संगठन ने, किसी राजनैतिक दल ने इसे संविधान के साथ खिलवाड़ क्यों नहीं बताया था? तब किसी दलित ने इस एक्ट के समाप्त होने की बात करते हुए मायावती के खिलाफ आन्दोलन क्यों नहीं किया था? सोचने वाली बात है कि तब तो एक व्यक्ति ने ऐसा निर्णय लिया था जबकि अबकी ऐसा निर्णय, ऐसी किसी भी रिपोर्ट पर गिरफ़्तारी से पहले जाँच होगी, सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिया गया.
साफ़ सी बात है कि चुनाव सामने दिख रहे हैं और देश के तमाम दल इस समय मुद्दे-विहीन हैं, विषय-विहीन हैं. ऐसे में उनके सामने अस्तित्व का संकट है. इसी संकट से खुद को निकालने के लिए भारत बंद का ऐलान किया गया, उसमें हिंसा की गई और फिर उनके द्वारा ही प्रतिक्रियास्वरूप सवर्ण-पिछड़ा वर्ग का भारत बंद ऐलान करवाया गया. जब तक लोकसभा के चुनाव नहीं हो जाते तब तक भाजपा-विरोधी राजनैतिक दलों, व्यक्तियों द्वारा ऐसे कदमों को झेलना, सहना, देखना आम नागरिक की मजबूरी होगी.
Read Comments