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भयावहता के साथ बढ़ती वैमनष्यता

मुद्दे की बात, कुमारेन्द्र के साथ
मुद्दे की बात, कुमारेन्द्र के साथ
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लगता है कुछ लिखने, विचार करने, आपसी संवाद करने का अब कोई अर्थ नहीं रह गया है. समाज में एक तरफ जहाँ भयावहता बढ़ती दिख रही है वहीं उसके साथ-साथ वैमनष्यता भी बढ़ती दिख रही है. एक-दूसरे के साथ संवाद-हीनता की स्थिति तो बढ़ ही रही है, एक-दूसरे पर अविश्वास भी बढ़ता जा रहा है. समाज का व्यक्ति अपने-अपने वर्गों, अपनी-अपनी विचारधारा के अनुसार अपने-अपने तर्कों को गढ़ने में लगा है. ऐसे में किसी समस्या का समाधान खोजने के स्थान पर सामने वाले पर दोषारोपण का कार्य किया जा रहा है. समाज में घटित होने वाली हर छोटी-बड़ी घटना को धर्म, जाति से जोड़कर उसका विश्लेषण किया जाने लगा है. यह वह स्थिति है जिसने व्यक्तियों को आपस में एकजुट होने से रोक रखा है. यही कारण है कि अपराधी हर बार अपराध करने के बाद बच जाता है और फिर अगले अपराध के लिए खुद को सक्रिय करने लगता है. अपराध करने के बाद बार-बार बचते रहना ऐसे अपराधियों के हौसले बुलंद करता है. उनकी बढ़ती ताकत को देखने के बाद भी हम सब ऐसे खामोश हैं जैसे कि उनके कातिल हाथ हमारे घरों तक नहीं पहुंचेंगे. हम ये समझ कर शांत बैठे हैं कि वे हत्यारे हमारी बेटियों, बहिनों को अपना शिकार नहीं बनायेंगे. हम माने बैठे हैं कि हम एक विचारधारा विशेष से आते हैं तो हम सुरक्षित बने रहेंगे. जबकि सत्यता इससे परे है.

 

इधर विगत कुछ समय से देखने में आ रहा है कि देश भर में एक-एक करके मामलों को, घटनाओं को जाति, धर्म के आधार पर उठाया जाने लगा है. किसी न किसी धर्म, संप्रदाय से सम्बंधित खबरों, घटनाओं को बहुतायत में प्रचारित किया जाता है, बिना ये सोचे-समझे कि इसका समाज पर क्या प्रभाव पड़ेगा. किसी भी घटना को, वारदात को, हिंसा को प्रायोजित तरीके से पेश करने की आदत सी बनती जा रही है. विद्रूपता इसकी है कि ऐसा करने वाले वे लोग हैं जिन्हें समाज का बहुत बड़ा तबका देखता-सुनता-पढ़ता है. ऐसे लोगों के लिए भी बच्चियों की हत्या में, उनके रेप में धर्म, जाति मुख्य रूप से प्रमुख होती है. उनकी रिपोर्ट का आधार भी बच्ची के साथ घटित होने वाली वारदात नहीं वरन उसका धर्म, जाति मायने रखती है. अपराधी की पहचान से ज्यादा उसका धर्म, जाति बताना ज्यादा महत्त्वपूर्ण होता है. किसी भी वारदात, हिंसा की मूल वजह खोजने के स्थान पर उसको जबरिया सांप्रदायिक रंग देने की कोशिश की जाने लगती है. सोचने वाली बात है कि ऐसा करने का इन लोगों का मंतव्य क्या है? आखिर ऐसा दिखा कर ये लोग समाज में किस तरह का माहौल बनाना चाहते हैं?

 

स्पष्ट है कि चुनावी वर्ष आरम्भ हो चुका है. ये लोग भी एक तरह के राजनैतिक कार्यकर्त्ता है जो हिंसा, अत्याचार, वैमनष्यता, कटुता आदि के प्रचार के द्वारा अपने-अपने दलों के लिए काम करते हैं. इनकी नारेबाजी भी इसी तरह की होती है. इनके बैनर, पोस्टर भी इसी तरह के होते हैं. ऐसे में नागरिकों को समझने की जरूरत है कि वे इनकी बोली जाने वाली भाषा को कैसे समझ रहे हैं.

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