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मानसिक संकुचन से बाहर निकलना होगा

मुद्दे की बात, कुमारेन्द्र के साथ
मुद्दे की बात, कुमारेन्द्र के साथ
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अब हम सभी लोग वाकई बुद्धिजीवी वर्ग में शामिल हो चुके हैं. ऐसा इसलिए क्योंकि यही एक वर्ग ऐसा है जो भावनात्मक होकर कभी किसी बात पर विचार नहीं करता है वरन हर एक बात को बुद्धि के तराजू से तौलता है. दिल के बजाय दिमाग का उपयोग करते हुए यह वर्ग सारे पहलुओं पर सिर्फ और सिर्फ गैर-भावनात्मकता से सोचता-विचारता है. हम सब भी आजकल कुछ ऐसा ही करने लगे हैं. कितना भी बड़ा हादसा हो जाये, कितनी भी छोटी बात हो जाये हम सभी सिर्फ और सिर्फ अपनी बंधी-बंधाई विचारधारा से ही सोचने का काम करते हैं. हमारे आसपास चाहे बलात्कार हो चाहे हत्या हो, चाहे हिंसा हो, चाहे किसी महिला को परेशान किया जा रहा हो, चाहे किसी बुजुर्ग को सताया जा रहा हो हम सभी मामलों में अपनी-अपनी विचारधारा के अनुसार विचार करना शुरू कर देते हैं. उस समय प्रताड़ित व्यक्ति हमारे लिए इन्सान नहीं रहता है बल्कि उस समय वह किसी धर्म का होता है, किसी जाति का होता है, किसी दल विशेष का होता है. हम सब उस व्यक्ति को उसी खाँचे में फिट करके उसी के अनुसार उसके साथ घटित घटना का आकलन, विश्लेषण करने लगते हैं. उस समय हमारे दिमाग में, हमारी नजर में उस व्यक्ति के साथ घटित होने वाली घटना की वीभत्सता नहीं होती है वरन एक विशेष खाँचे में उसका फिट होना होता है.

कभी सोचा है कि आखिर ऐसा क्यों होने लगा है? कभी विचार किया है कि ऐसा विगत तीन-चार वर्षों से ही क्यों दिखाई देने लगा है? क्या कभी इस पर विचार किया गया है कि एक सी घटना पर हम सभी दो अलग-अलग विचार कैसे अपना लेते हैं? हमारे लिए उस समय न तो पीड़ित व्यक्ति की उम्र मायने रखती है, न उसका क्षेत्र मायने रखता है, बल्कि इतना याद रहता है कि उसके प्रति वैचारिक आन्दोलन खड़ा करने के क्या लाभ, क्या हानि है. इधर भी कुछ ऐसा होने में लगा है. बच्चियों के साथ बलात्कार हुआ है, बच्चियों की हत्या हुई है मगर उसके बाद भी वे लोग जो खुद को बुद्धिजीवी घोषित किये फिरते हैं, इन वारदातों को भी हिन्दू-मुस्लिम नजरिये से देख रहे हैं. सोचने वाली बात है कि आप एक बच्ची के लिए न्याय मांगते हैं और दूसरी बच्ची को नजरअंदाज कर देते हैं, कैसे? आखिर बुद्धिजीवी कहलाने वाले लोग ऐसा किसे कर लेते हैं कि एक बच्ची के लिए आन्दोलन छेड़ देते हैं और उसी तरह की विभीषिका को झेलने वाली दूसरी बच्ची के प्रति संज्ञाशून्य बन जाते हैं? आखिर पढ़ने-लिखने वाले कैसे एक जैसी दो घटनाओं में अपनी-अपनी विचारधारा को खोज लेते हैं?

समाज में अपराध रोकना बहुत आसान है, बस हम नागरिक आपस में राजनीति करना बंद कर दें. कोई भी अपराधी इतना बलशाली नहीं होता कि वह पूरे समाज को अपने कब्जे में कर सके. देखा जाये तो वह चंद वैचारिक लोगों को अपने काबू में कर लेता है और फिर यही लोग उसके अनुसार काम करना शुरू कर देते हैं. जैसे ही उसे लगता है कि उसका लाभ किसी विषय विशेष से है वह उसी के अनुसार अपनी चालें चलने लगता है. यहाँ पढ़ने-लिखने वाले, खुद को बुद्धिजीवी बताने वाले सहज भाव से उसके साथ चलना शुरू कर देते हैं. यहाँ उन चंद लोगों को नहीं वरन हम सबको सोचने की आवश्यकता है. समझना होगा कि नुकसान हमारा हो रहा है. परिवार हमारे नष्ट हो रहे हैं. सदस्य हमारे प्रताड़ित हो रहे हैं. यदि हम सब संकुचित मानसिकता से मुक्ति नहीं पाते हैं तो फिर कल को प्रताड़ना के कदम हमारे परिवार के भीतर पहुँच सकते हैं. सोचिये क्या तब भी हम सब जाति, धर्म, क्षेत्र, दल जैसी संकुचित मानसिकता में, खाँचे में फँसे रहेंगे?

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