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मीडिया की दोहरी नीति

मुद्दे की बात, कुमारेन्द्र के साथ
मुद्दे की बात, कुमारेन्द्र के साथ
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राष्ट्रवाद, राष्ट्रप्रेम को लेकर वर्तमान में देश में एक अजब सा माहौल बना हुआ है. भाजपा सरकार के पक्षकार और विपक्षी दोनों तरफ से ऐसे विषयों पर अपने-अपने तर्क प्रस्तुत किये जा रहे हैं. इन बयानों, तर्कों को कसौटी पर कसे बिना, उनकी सत्यता को जाँचे बिना मीडिया द्वारा आग में घी डालने का काम किया जा रहा है. राष्ट्रवाद के पक्ष में अथवा विपक्ष में किसी भी तरह का बयान आने के बाद कतिपय मीडिया मंचों द्वारा अपनी टीआरपी को ध्यान में रखा जाने लगता है. स्वार्थमयी सोच के आगे ये विचार करना बंद कर दिया जाता है कि उनके इस तरह के प्रसारण से देश को किस तरह का नुकसान होने का अंदेशा है. विगत दो वर्षों से, जबसे कि केंद्र में भाजपा सरकार का आना हुआ है, मीडिया द्वारा, गैर-भाजपाइयों द्वारा ऐसे कृत्य कुछ अधिक ही होने लगे हैं. ऐसा माहौल बनाया जाने लगा है कि जो हो रहा है वो बस अभी ही हुआ है, न इससे पहले कभी ऐसा हुआ है और न कभी इसके बाद होगा. यदि इसके बाद होने की आशंका है और ये भाजपा के कार्यकाल में हुआ तो और भी भयानक होगा, इस तरह के प्रसारण से देशहित को ही नुकसान हुआ है.

विगत की आपत्तिजनक बातों को पुनः दोहराने का कोई लाभ नहीं. इसके उलट यदि वर्तमान की कुछ घटनाओं का संज्ञान लिया जाये तो भी स्थिति वहीं की वहीं दिख रही है. एक अभिनेत्री का बयान आया कि पाकिस्तान में सबकुछ नरक नहीं है और बस बवेला शुरू. पक्ष-विपक्ष अपने-पाने हथियार लेकर मैदान में उतर आये. बिना ये जाने-सोचे समझे कि उसने वाकई क्या कहा, क्या कहना चाहा. इसी तरह संघ प्रमुख का बयान आया कि किस कानून ने हिन्दुओं को अधिक बच्चे पैदा करने से रोका है, बस हो-हल्ला आरम्भ. मीडिया ने, गैर-भाजपाई मानसिकता वालों ने इसे ऐसे प्रसारित किया कि संघ प्रमुख ने हिन्दुओं से अधिक बच्चे पैदा करने को कहा है. ये कोई एकमात्र अथवा नया उदाहरण नहीं है किसी भी बयान पर मीडिया का दोहरा रवैया अपना लेना. देखने में आ रहा है कि मीडिया परिवार इस समय मीडिया से ज्यादा राजनीति सी करने में लगे हैं. अपने आपको एक राजनैतिक दल की तरह से प्रस्तुत कर रहे हैं. केंद्र की भाजपा सरकार के सामने विपक्ष की भांति खड़े हुए हैं. खड़े भी होना चाहिए, आखिर मीडिया ने, पत्रकारिता ने स्वयं को लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ घोषित किया है. इसके बाद भी उसके द्वारा पूर्वाग्रह से ग्रसित पत्रकारिता देखने को मिल रही है. अभी हाल ही में भाजपा के एक नेता जी के बयान पर हो-हल्ला हुआ. एक दलित महिला के अपमान की बात उठी, उन पर आरोप तय किये गए, जेल भेजा गया, जमानत हुई और इन सबमें मीडिया ने बड़ी तन्मयतापूर्ण भूमिका का निर्वहन किया. अब जबकि मामला शांत है, उसी मीडिया ने जरा भी नहीं सोचा कि जिस बयान के द्वारा इतना हो-हल्ला मचा उसी बयान में बसपा की मुखिया पर टिकट बेचने का आरोप लगाया गया था. क्या मीडिया की जिम्मेवारी नहीं बनती थी कि वो इस आरोप के सम्बन्ध में भी तन्मयता दिखाती, तत्परता दिखाती?

देश भर में मीडिया द्वारा, गैर-भाजपाई दलों द्वारा इस तरह का माहौल बनाया जा रहा है कि भाजपा के द्वारा सिर्फ और सिर्फ गलत ही किया जा रहा है. हाल ही में अभिनेत्री के बयान को तवज्जो देने वाली मीडिया, संघ प्रमुख के बयान को तोड़-मरोड़ कर पेश करने वाली मीडिया जेएनयू के बलात्कारी छात्र नेता वाले प्रकरण पर खामोश रही. किसी राजनैतिक दल की तरफ से कोई बयान नहीं आया. किसी मीडिया मंच ने इस पर आन्दोलन सा खड़ा नहीं किया. जबकि यही मीडिया, यही राजनैतिक दल कश्मीर के आतंकवादी के मारे जाने पर हुए उपद्रव को ऐसे तूल देने में लगे हैं जैसे देश में एकमात्र मुद्दा यही है. मीडिया को तथा राजनैतिक दलों को समझना होगा कि अनर्गल प्रसारण से वे भाजपा का नहीं देश का नुकसान कर रहे हैं. देशवासियों को खतरे में डाल रहे हैं.

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