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हम सब रंगमंचीय कलाकार हैं

मुद्दे की बात, कुमारेन्द्र के साथ
मुद्दे की बात, कुमारेन्द्र के साथ
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विश्व रंगमंच दिवस की आप सभी को शुभकामनायें. संभव है कि आपको आश्चर्य लगे इस बधाई पर, शुभकामना पर. ऐसा इसलिए क्योंकि हममें से बहुत से लोगों का मानना है कि रंगमंच से सम्बन्ध एक वर्ग-विशेष का होता है, जो तयशुदा स्थिति में किसी मंच पर अपने आपको दर्शकों के सामने प्रस्तुत करता है. ऐसा है भी, समाज में सदियों से किसी बंधी-बंधाई लीक पर चलते रहना और उसी के हिसाब से अवधारणा बना लेने का काम बराबर होता रहा है.

 

 

ऐसा ही रंगमंच के साथ भी होता आया है. रंगमंच की बात करते ही हमारी आँखों के सामने एक बड़ा सा अँधेरा हॉल, इधर-उधर से अँधेरे को चीरती रौशनी, एक लम्बा-चौड़ा सा मंच और उस पर अलग-अलग वेशभूषा में अभिनय करते कुछ लोग. शारीरिक हाव-भाव के साथ-साथ छोटे-लम्बे संवाद और उसकी संगत में चलता संगीत, कुछ इतना सा ही हमारा रंगमच.

 

सामान्य सा जीवन जीने वालों के लिए रंगमंच कोई अलौकिक घटना भी है तो किसी के लिए कोई फालतू का उपक्रम. किसी के लिए यह प्रतिभा को निखारने वाला मंच है तो किसी के लिए समय बर्बादी का एक तरीका. जितने लोग, रंगमंच को लेकर उतनी ही बातें. बहरहाल, रंगमंच को संकुचित और पारिभाषिक रूप में इतने भर में सीमित किया जा सकता है मगर यदि उसकी व्यापकता पर निगाह दौड़ाएं तो हम सभी किसी न किसी रूप में रंगमंच से जुड़े हुए हैं.

 

ऐसा कहने के साथ किसी फिल्म का कोई संवाद आपके सामने नहीं दोहराया जायेगा क्योंकि वो तो खुद-ब-खुद आपके दिमाग में गूँज गया होगा. उस रंगमंचीय संवाद से इतर हम सभी आज रंगमंच वाली स्थिति में हैं, कल भी थे और आने वाले कल में भी रहेंगे. बिना किसी तरह के विश्लेषण के एक पल को हम सभी अपनी दैनिक चर्या पर विचार करें तो किसी तरह के विश्लेषण की आवश्यकता नहीं रह जाती है.

 

सुबह उठने से लेकर रात सोने तक हम सभी न जाने कितने-कितने मंचों पर, न जाने कितनी-कितनी तरह से अभिनय करते हुए अपने कार्यों को अंजाम देते हैं. ये और बात है कि हमारी ये अभिनय क्षमता किसी रंगमंचीय विधा में शामिल नहीं की जाती है. हमें किसी निर्देशक अथवा किसी नाट्य-संस्था की तरफ से इसका कोई मानदेय या फिर पारितोषिक नहीं मिलता है.

 

ये भी है कि इस रंगमंच की स्थिति में हम ही निर्देशक होते हैं, हम ही कलाकार होते हैं, हम ही दर्शक होते हैं, हम ही आलोचक होते हैं, हम भी समीक्षक होते हैं. अपने कार्यों के सापेक्ष हमें तय करना होता है कि हम अभिनय किसके लिए और क्यों कर रहे हैं. अपनी इसी अभिनय कला के सन्दर्भ में हमें निर्धारित करना होता है कि उसका क्या निष्कर्ष निकलना है.

 

संभव है कि बहुत से लोग इसे लेकर सहमति न बनायें मगर सत्य यही है कि प्रत्येक इन्सान अभिनय क्षमता के आधार पर ही अपने आपको समाज के सामने प्रस्तुत करता है. यहाँ इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि उसकी अभिनय क्षमता किसी को धोखा देने के लिए है, किसी को ठगने के लिए है या फिर किसी स्वार्थ के लिए है. हम सबके काम करने का, काम करवाने का ढंग अलग-अलग होता है और वही हमारी अभिनय क्षमता होती है. चूँकि रंगमंच के काल्पनिकता से जुड़े होने के कारण, उससे जुड़े लोगों का अलग-अलग पात्रों के अभिनय को करने के कारण आम चलन में नाटक या रंगमंच का सन्दर्भ काल्पनिकता से लगाया जाने लगा है.

 

यही कारण है कि आज सहज इन्सान की सहज प्रवृत्ति भी हमें नाटक समझ आती है. किसी भी सामान्य से इन्सान का सरल व्यवहार हमें रंगमंच का नाटक समझ आता है. आज जिस तरह से अपने-अपने चेहरों पर मुखौटे लगाकर हम लोगों ने एक-दूसरे से मिलना शुरू कर दिया है उसने सभी को रंगमंच का एक पात्र बना दिया है. इस सांसारिक रंगमंचीय स्थिति में हम सभी जीवन का नाटक खेलने में लगे हैं.

 

एक पल में ही व्यक्ति-व्यक्ति के स्वभाव के हिसाब से अपने स्वभाव को बदल कर उससे बर्ताव करने लगना हमारी उत्कृष्ट अभिनय कला का ही परिचायक है. सांसारिक रंगमंच को यह विस्तार समय के साथ मिलता रहा अथवा यह भी समाज के साथ आरम्भ से जुड़ा रहा, यह शोध का विषय भले हो मगर यह सत्य है कि प्रत्येक इन्सान रंगमंचीय स्थिति में आज समाज में खड़ा हुआ है.

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