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मानसून तुम लौट जाओ न ….. ।
और कितनी देर रहोगे ? ज्यादा कहीं रुक जाओ तो सम्मान कम होने लगता है, पता तो है न। सब चिड़ने लगे हैं तुमसे मन ही मन में, अब तो कहने भी लगे हैं कि कब जाओगे ?
तुम तो वैसे भी बड़े आलसी और इठलाने वाले हो। मनाने-मनाने पर भी ठीक से नहीं आते हो और आते भी हो तो बड़े अनमने से। फ़िर इस बार ऎसा क्या हो गया है, जो मन लग गया है यहां। जैसा पिछले बरस था वैसा ही अब भी है, न कुछ बदला है न कुछ अच्छा हुआ है तो मन क्यूँ अटक गया है यहाँ ?
खूब तो बरसे हो अबकी बार। कृपा कुछ ज्यादा ही आ गई है यहां। यकीन न हो तो देख लो। सब आपकी कृपा से भरे बैठे हैं। पूरे साल खाली पड़े रहने वाले नदी-नाले पूरे उफान पर है और घरों में घुसने को आतुर हैं। किसान भी खुश हो गये हैं, अब उन्हें कोई काम नहीं करना पड़ेगा । पूरे खेत भर दिये हैं तुमने पानी से और उनमें मौजूद फसलों ने खुशी के मारे जल समाधि ले ली है। थोड़ा सा गुरेज जरूर है उन्हें कि पहले बता देते तो अपने ट्रैक्टर को इतना न दौड़ाते खेतों में जुताई करने के लिए। कम से कम डीज़ल की ही बचत हो जाती। पर्यावरण भी साफ रह जाता जो उनके छोटे से वाहन से प्रदूषित हो रहा था।
सरकारी खाद बांटने वाले अलग नाराज हो गए हैं। उन्हें जबरदस्ती काम करना पड़ा है। खाद तो खैर कुछ रसूखदारों को ही दी गई थी, पर उसका भी ठीक से उपयोग नहीं हो पाया। सरकारी सामान के ऐसे दुरूपयोग से बड़ी पीड़ा होती है और फिर उनकी वह थोड़ी सी मेहनत भी जाया हो गई। साल में जो एक दो दिन मेहनत की हो और वो भी पानी में चली जाये, पीड़ा और नाराजगी तो होगी ही।
ठेकेदारों की अलग समस्या है। उनकी बनाई नई रोड उखड़ी है पानी गिरने से, पर सवालिया निशान उन पर लग रहा है । गलती तुम्हारी जो इतना बरसे और दोष ठेकेदार का, यह तो सरासर नाइंसाफी है । अब सिस्टम उनका गला दबायेगा और फिर से खर्चा पानी ले लेगा । पहले खर्चा रोड बनाने के लिए हामी भरवाने में करो, फिर रोड बनाने में करो और फिर उसे ठीक करने में करो । यह कहांं का इन्साफ हुआ ? ये तो जुल्म है।
सरकारी स्कूल के बच्चों को थोड़ी सी राहत मिल गई है। रोज रोज स्कूल जाने का चक्कर अब नहीं रहा। पंचायत से जो स्कूल की बिल्डिंग बनायी गयी है, वो जगह जगह से रिसने लगी है। कब गिर जाये क्या भरोसा, इसलिये सब दूर रहते है उससे । पर एक बात समझ नहीं आ रही है कि बिल्डिंग इतनी ढीठ कैसे हो गई है ? कोशिश तो बराबर थी सबकी कि गिर जाये, फिर गिरी क्यों नहीं अब तक ? पता नहीं क्या चाहती है, उन बच्चों की तरह ही बेशरम लगती है, जो यहां पढ़ने आ जाते हैं। बड़े ही बेकार और लापरवाह टाइप के बच्चे तो आते हैं स्कूल में, ये नहीं कि कुछ मेहनत मजदूरी करें तो दो वक़्त की रोटी का जुगाड़ ही हो जाये। पर चले आते हैं जैसे सीखकर कोई कलेक्टर बन जाना हो। बच्चों को खैर कोई शिकायत नहीं है क्योंकि वो खेलने में मस्त है। सड़कों, खेतों और घरों में बन गये नये-नये छोटे तालाबों में उछल कूद करने में व्यस्त हैं ।
घरों की हालत कुछ ठीक समझ नहीं आ रही। जगह जगह से पानी अंदर आने लगा है, दीवारें पानी से भीगी हुई हैं। घर के हर सामान पर जैसे फंगस को प्यार हो आया है और पूरा घर एक अजीब सी खुशबु से महकने लगा है। नालियों का पानी कहीं जाता नहीं है, वही आस पास ही बना रहता है जिससे घर में ही किसी टापू पर होने का एहसास हो जाता है । चारों ओर से पानी से घिरे होने पर भी पीने का पानी नसीब नहीं। नगरपालिका का ये काम ठीक लगता है, आसपास पानी रहेगा तो फिर किसी को कोई शिकायत नहीं होगी पानी की।
महिलाओं को इस सबसे ज्यादा ही परेशानी हो गई है। पुरूषों को खैर बहुत ज्यादा इससे परेशानी नहीं है। वो ज्यादातर घर से बाहर रहते हैं और घर के कामों को करने का जिम्मा उनका वैसे भी नहीं होता। उन्हें देश-दुनिया की फिक्र करनी होती है। पर नाराजगी तो उनकी भी है। आखिर देश के दूर कोने पर आयी बाढ़ और वहां मौजूद लोगों की पीड़ाओं की चिंता कौन करेगा । बिजली भी अपना रंग दिखाने लगी है । बार बार चली जाती है । रहती कम है, जाती ज्यादा है । टीवी पर मनोरंजन से भरी न्यूज नहीं देख पाने का अफसोस भी होता है । मच्छरों के लिए खुशियां आ गई है । वो स्वस्थ है, भोजन भी खूब मिल रहा है इसलिये बीमारी फैलाने का अपना काम बखूबी अंजाम दे रहे हैं। जन हितैषी, समाजसेवी नेताओं पर तो जैसे मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा है । उन्हें बार बार आकाशीय मार्ग से पूरे क्षेत्र का दौरा करना पड़ रहा है और पाँच साल में एक बार आने का उनका क्रम टूट गया है ।
सबसे बुरी स्थिति तो बेचारे मौसम विभाग की हुई है। जैसे तैसे तो कोई घोषणा करता है अंदाज लगाकर और तुम फेल कर देते हो। ये बहुत बुरा काम किया है, तुम किसी की बात क्यों नहीं मानते ? विभाग ने तो ठीक ही सोचा था कि हर बार तो कम ही रुकना होता है तो इस बार भी कम ही रुकोगे तो क्या गलत किया ? अब तुम जम ही गये तो वो क्या करें। सब उनको दोष दे रहे हैं जबकि उनका कोई कसूर नहीं। अब घर, जानवर बह जाये बाढ़ में, तो विभाग की क्या गलती ? लोग वहाँ जाते क्यों हैं, हर साल ही तो बहते हैं कोई नई बात थोड़ी है। जो भी घोषणा करे, उसका उल्टा ही होता है।
आखिर क्या दुश्मनी है उनसे ? उनकी खूब खिंचाई होती है हर साल । आखिर कब तक उनको बेइज्जती झेलनी पड़ेगी, कुछ तो लिहाज करो।
और एक बात तो बताओ तुम सरकारी आदमी हो क्या ? एक तो कभी कभी ही आते हो । टाइम पर आते नहीं, लेट आते हो। पूरी गैरजिम्मेदारी से काम करते हो, जब मन हुआ आ गये जब मन हुआ चले गये । जब मन हुआ काम किया, जब मन हुआ नहीं किया। तो मानसून अब लौट जाओ न और क्या सुनना बाकी है। नेता हो या मीडिया। उनके जैसी चमड़ी मोटी तो नहीं होगी न तुम्हारी, कुछ तो अपना ख्याल करो और फिर जाओगे नहीं तो आओगे कैसे ?
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