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कॉलेज चलो! (व्यंग्य)

brajendra
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साहब ने फरमान जारी किया है कि बच्चों को उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहित करने के लिये एक अभियान चलाया जाये जिससे कि अधिक से अधिक संख्या में बच्चे कॉलेज में दाखिला ले और अपनी शिक्षा दीक्षा पूरी करे। साहब बड़े नेक ख्यालों के है और हर समय समाज के कल्याण के लिए ही सोचते रहते हैं।अब बच्चे कॉलेज जायेगे तो कुछ सीखेंगे ही, ऎसा तो नहीं होगा कि वो वहाँ आवारागर्दी करने लगे ।‘पढ़ेगा इंडिया तभी तो आगे बढ़ेगा इंडिया’ यही तो मंत्र है |
अब कुछ लोग अलग ही सोच रखें तो बेचारे साहब का क्या दोष । कह रहे हैं कि कॉलेज में तो पढ़ाने वाले ही नहीं है तो कैसे पढ़ेगा और कैसे बढ़ेगा इंडिया। ये ताम-झाम क्यूँ जबकॉलेज की बुनियादी सुविधाओं का ध्यान ही न रखा जाये।

अब यह क्या आज की बात है, वो तो कब से नहीं है लेकिन कॉलेज तो चल ही रहे हैं न ।हर साल लाखों बच्चे इन्हीं कॉलेज में जाते हैं और बाहर आते हैं ।अचानक से तोपैदा कर नहीं दी ये मुसीबत जो हमसे सवाल कर रहे हैं और फिर बिना पढ़े हुए ही डिग्री मिल जाये इससे अच्छा क्या हो सकता है ।बच्चे खुश हैं, माँ-बाप भी खुश हैं, हर कोई खुश है सिवाय इनजैसे कुछ लोगों को छोड़कर, पता नहीं क्या चाहते हैं ये लोग। हाँ अगरबाद में इन डिग्रीधारी लोगों को नौकरी न मिले और इधर उधर भटकना पड़े तो और बात है ।पर उसमें साहब का क्या कसूर, नौकरी दिलवाना तो उनका काम नहीं है। उनका काम है जैसे तैसे हर एक को कॉलेज के दर्शन कराना। वैसे भी एक अनार सौ बीमार जैसा किस्सा है नौकरी का, इसलिये यह कोई समस्या नहीं। हमारी संस्कृति में तो हमेशा ही संतोष करना सिखाया गया है, सब अपने भाई-बन्धु ही तो हैं ।चाहे तो एक ही अनार रख ले या चाहे तो अनार के दानों को आपस में बांट लें। संतोषं परम सुखं का जाप करें।

साहब की मंशा है हर एक को डिग्री मिले, उनका बस चले तो नवजात शिशुओं को भी डिग्री पकड़ा दें ।इसलिये कॉलेज चलो अभियान शुरू किया है, बड़ा ग़ज़ब काहै ये अभियान। हर कोई व्यस्त है, सबएक ही चिंता में दुबले हुए जा रहे हैं कि कॉलेज भरना हैं, जैसे कि वो कोई तबेला हो ।‘परवो तो पहले से ही भरे हुए हैं’किसी ने पूछ लिया। जब क्षमता ही नहीं है तो क्यों और भरने मे लगे हो ? उनकी बेहतरी का क्या प्लान है ? है भी या नहीं ?

बड़े ही अजीब लोग है यहाँ के। अच्छाकाम किसी को पसंद नहीं। जब हम बस में सफ़र करते हैं तो क्या यह देखते हैं कि वह कितनी भरी है ? ठसाठसभरीहो तब भी जिसको जहाँ जगह मिलती है एडजस्ट हो ही जाता है, कोई न नुकर तो नहीं करता है। बड़े शान से चलती है वो भरी बस । खैर छोड़ो, इन लोगों को ये बात नहीं समझ में आयेगी इन्हें कॉलेज कोई अलग ही चीज नज़र आती है । एक ने तो ये तक पूछ लिया कि प्रदेश की हालत इतनी गम्भीर है क्यों है ?यहां के बच्चे दूसरे प्रदेशोंके सामने टिक नहीं पाते, वो कमजोर साबित हो जाते हैं ऎसा क्यूँ ? अब बताइये ये भी कोई सवाल है जब पूरे देश के हालात ही ऐसे हो तो सवाल हमसे क्यों ? जब दुनिया में हमारे देश के ही नामचीन संस्थानों की कोई गिनती नहीं है तो फिर हमसे उम्मीद क्यों ? किसके यहाँ नोबेल मिल गया जो हम पर आरोप लगाते हैं ? ठीक है हम बाकि से पीछे है पर ये भी तो देखो कि वो कितने पानी में है।वो भी कमतर ही है। थोड़ा उन्नीस बीस तो चलता है। फिर भी हमसे जो बन पड़ा सो किया, मनचाहे नंबर दिये, डिग्रियाँ दी, अब कुछ जिम्मेदारी तो बच्चों की और समाज की भी तो बनती है।

अब एकलव्य को ही ले लो, जंगल में मिट्टी के द्रोणाचार्य से शिक्षा पायी थी,कभी कोई शिकायत नहीं की कि कॉलेज नहीं है, शिक्षक नहीं है फिर भी महान धनुर्धर बना । साहब अक्सर यह किस्सा सुनाया करते हैं, बहुत प्रभावित है उससे ।बच्चों को एकलव्य बनाना चाहते हैं पर उन्हें भारी अफ़सोस है कि मिट्टी के द्रोणाचार्य औरजंगलवो अपने बच्चों को उपलब्ध नहीं करा पाये क्योंकि मिट्टी का काम अब कोई करता नहीं और जंगल तो अब किस्से कहानियों में ही सुनाई देते हैं ।परएक ख़ुशी की बातहै कि कुछ कुछ वैसा ही माहौल बनाने में वोसफल हुए हैं ।कॉलेज बंजर और वीरान है,जहाँ कोई द्रोणाचार्य भी नहीं है ।ऐसी उर्वर भूमि पर भी यदि फूल न हों तो साहब फिर क्या कर सकते हैं ?

अबबसएक बात बार बार जेहन में आती है यदि कुछ एकलव्य यहाँ से निकलकर आ गए, पढ़-लिख गये, कहीं सफल हो गए तो फिर क्या होगा उन्हें भी अपना अंगूठा देना होगा ?
वैसे बड़े सहृदय हैं साहब।

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