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अमृतवाणी – २

Abhivyakti
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सूफी कबीर हसन हमेशा रोता अल्लाह की याद में, छाती पीटता और कहता जाता, प्रभु द्वार खोल, द्वार खोल, रोता भाव-विह्वल होकर, द्वार खोल प्रभु, द्वार खोल, दोहराता, छाती पीटता बार बार| एक दिन वह राबिया के घर ठहरा, उसका तो वही काम, सुबह उठा, नमाज़ की और फिर रोने लगा, छाती पीटता, कहता बार बार, प्रभु द्वार खोल, द्वार खोल| एक दिन बीता, दो दिन बीते, जब तीसरे दिन भी यही सिलसिला जारी रहा तो राबिया बोली, बन्द कर ये बकवास, द्वार तो खुले ही हुए है, आँख खोल, खोल आँख भीतर की, स्वयं की स्वयं में, सामने है अल्लाह, दरवाजे कभी न बन्द थे, न कभी है | लोग कहते है, जिसकी आँख नही, वो अन्धा, पर वो भी तो अन्धा हो सकता है जिसने आँखों पर पट्टी बांध रखी हो और चलो ये भी नही, यदि आँखे ही बन्द कर रखी हो तो उस अवस्था में हममें और बगैर आँखों वाले में क्या फर्क? पर शायद ये फर्क हो सकता है कि वो बगैर आँख वाला, जिसे अन्धा कहते है हम, देखता हो सब भीतर की आँखों से |
कैसे ये शास्त्र, जिनकी पूजा करते है हम, पार लगा सकते है हमे इस संसार से, निर्वाण की ओर, हाँ ये सही है कि जिसने ये शास्त्र लिखे, उसने पाया होगा सत्य को, पर उसने जो महसूस किया, जो यात्रा की, उसे हम कैसे पा सकते है| वो अनुभव कहाँ से आये, जो हर क्षण हर पल ध्यान में जिया उस रचयिता ने इस संसार में रचयिता के सान्निध्य से| आप कहते है गुरुदेव कि इस नाव की पूजा करने से कुछ भला न होगा जब तक ये भरोसा न हो कि ये नाव ले जाने में सक्षम भी है या नही उस पार जाने के लिये और इसके साथ साथ ये अनिवार्यता कि ऐसा मांझी हो जो रखता हो ऐसा बोध, ऐसा ज्ञान मार्ग का और सक्षम हो, जानने वाला हो दूसरा छोर तभी तो भरोसा आयेगा| आप कहते है कि चाहिए एक सचेतन व्यक्तित्व, जो भरा हो उस परमात्मा के प्रकाश से क्योकि ये शास्त्र की विवेचना, व्याख्या और यात्रा का प्रश्न है| कैसे आज हम रटते है शास्त्रों को तोते की तरह और अपने अनुसार अर्थ निकालते है उनका और ये शास्त्र, जो भरे हमने अपने मस्तिष्क में, उसे डाल देते है दूसरो के सिर पर| ये बिल्कुल ऐसा है जैसे हमने भोजन किया जरुर, पर पचाया नही, वमन किया उस भोजन का तो उस भोजन से कैसे मांस मज्जा बनेगी, ठीक ऐसे ही हम कागज़ पर सोना लिख कर कसौटी पर कसे तो इससे क्या होगा, इससे कसौटी पर कोई निशान छूटेगा क्या, नही, क्योकि ये सोना नही, कागज़ है, आप चाहे इस पर सोना लिखे या मिट्टी बात एक है| आप कहते है, आस्था चाहिए, कहाँ दे पायेंगे ये शास्त्र आस्था, आस्था तो सचेतन में हो सकती है, ज्योति तो सचेतन में जगेगी, बुझा दीया दूसरे दिये को कैसे प्रकाशित कर सकता है| आज सौ में से निन्यानवे मौको पर पंडित द्वारा शास्त्र की व्याख्या कही न कही एक दोहराव होती है या फिर उसके पंडितपन की समझ, जो एक भटकाव देती है, दिशा नहीं| कोई ऐसा दीया चाहिये और चाहिये एक प्यास, एक लपट, जो प्रकाशित कर दे, जला दे बुझे दिये को | आपने बताया कि ये विषय नही है बुद्धि का ये विषय नही है तर्क का, ये विषय नही है संदेह का, ये विषय है श्रद्धा का, ये बात है किसी के लिए स्वयं को पौंछ देने की, अगर हमने बुद्धि की बात की तो संदेह सामने है, अगर हम श्रद्धा की बात करे तो हृदय, परमात्मा संदेह से तर्क से नही मिलता, मिलता है श्रद्धा से| बुद्धि को, सिर को, यदि पहले लगाया और हृदय पीछे तो हरि न मिलेगा, मिलेगा संसार, यदि हृदय पहले आये और बुद्धि पीछे तो संभावना है | अगर बुद्धि आये पहले तो वह ऐसा जैसे गाडी के पीछे बैल बाँध दिये हो, कैसे यात्रा होगी, कहाँ पहुचेंगे हम, बैल तो आगे ही लगेंगे, यात्रा तभी होगी समाधि की|
सतगुरु कहते है कि हे अपांतरम, कितना उलझा है मनुष्य इस विचार रूपी संसार यानि मन में, वो भी एक नही हजार है और उसमें तैरते विचारो की एक अटूट श्रृंखला, जो कभी भी खाली नही होने देती इस चित्त को, साहस से परिपूर्ण एक दृढ़ता चाहिए उस निर्वाण को पाने की, जो जीवन को भर दे प्रेम से उस प्यारे के, तभी चित्त हो पायेगा निर्विचार और अब महाकाश मिलन की यात्रा पर जायेगा घटाकाश|
आज अहंकार सिर चढ़कर बोलता इस संसारी के, आज समझता नहीं इन्सान को इन्सान, नही समझता ये, कृपा करता है प्रभु, समझता है खुद का किया धरा सब, सबसे ज्यादा चतुर समझता है खुद को, यदि सच में चतुर हो तो आनन्द कहाँ है, अगर आनंद नही जीवन में तो इस चतुराई को समेट कर रखो अपने पास | हमें जगाना होगा अपने बोध को, करनी होगी बोध की यात्रा, ध्यान में लाना होगा हमेशा आनंद की अनुभूति को |

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