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अमृतवाणी – ३

Abhivyakti
Abhivyakti
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कैसे नाव उतरे पार बगैर मांझी के, क्यों कर रहे है हम नाव की पूजा, क्या होगा नाव को पूजने से, चाहिए एक ऐसा मांझी, जो हमारे जीवन को एक अर्थ से भर दे, एक ऐसा गुरु, जो शास्त्र रूपी नाव को पहुंचा दे दूसरे छोर पर, पर ये तभी संभव है जब वह जानता हो दूसरा किनारा, शास्त्र तो शास्त्र है, करते है हम संग्रह शास्त्र का, भरते स्मृति में और निर्वचन होता शास्त्र का, कैसे सौपेंगे हम स्वयं को उसके सहारे, कैसे भरोसा आयेगा कि पहुँच जाये नाव दूसरे छोर पर | आवश्यकता है प्रेम भरे हृदय की, ज्ञान उसके बाद, पहले श्रद्धा चाहिये, प्रेम चाहिये और उसके बाद तलाश ऐसे गुरु की, जिसकी आँखों में ज्योति हो आस्था की, जिसे देखते ही आत्मा गवाही देने लगे, हाँ यही है वो सतगुरु, जो संसार में तो है, लेकिन भीतर की यात्रा निर्वाण की कर आया हो, घट घट में घटता वो परम, जिसे पलटू कहते है यार और जिसे बुद्ध ने कहा कल्याण मित्र, अब क्या खतरा, क्या चिन्ता इस जीवन की, जब मै जिम्मेदारी ही हो गया उसकी, जब तक मै चिंता करता था खुद की, तब तक उलझन थी, अब नही है, अब तो सदगुरु ने दिखा दिया है मार्ग निर्वाण का, अब समझ आ गया है मुझे, ये जीवन, ये मानव जन्म, ये अनमोल मानव जन्म यूँ ही नही गंवाना, जगाना है चैतन्य को | लोग पूछते है क्या ईश्वर है, कितनी बड़ी बात पूछ लेते है, क्या ये पूछने की पात्रता है हममें? नही, इसके लिए जागरण चाहिए, आज जिन्हें हम संन्यासी कहते है, उसमें १०० में से ९९ परिस्थितिवश संन्यासी है, इसलिए नही कि अभिप्सा है परमात्मा को पाने की| क्यों अन्धकार में जीते है हम, क्यों नही ढूंढते सतगुरु को, जिसकी आँखों में हो आस्था के दीये, जो जगा दे हमारे बुझे दीये को, ऐसा भरोसा चाहिए कि हम जिम्मे हो उसके और जैसे तुलसी ने छोड़ा अपने आप को उसके भरोसे, उस राम के भरोसे तो अब तुलसी को फ़िक्र नही अपनी, राम को फ़िक्र थी उनकी, घर पर पहरा देते थे राम उनके, ऐसा भरोसा देता है सतगुरु, तभी अपांतरम पार पा जाता है इस जगत से, खो जाता है जगत उसका, बजने लगता है एकतारा भीतर का |
एक मुस्लिम फ़कीर बायिजिद जीवन भर पांच समय नमाज़ करता रहा, रोज मस्जिद जाता, एक भी दिन ऐसा नही जाता जब वो मस्जिद नही जाता, ये ही जीवन था उसका, लोग कायल थे उसकी इस श्रद्धा के, प्रेम के उसके मौला के लिए| एक दिन बायिजिद मस्जिद न पहुंचा, लोग बाते बनाने लगे कि कही बायिजिद दुनिया तो नही छोड़ गया क्योकि वो मस्जिद में पांच समय की नमाज़ अता करने से इस कदर जुडा था कि गाँव भी छोड़कर नहीं जाता था दूसरे गाँव कि कही वहाँ नमाज़ की व्यवस्था हो भी पाये या नहीं, लोग घर पहुंचे उसके, देखते क्या है, एकतारा लिये बैठा है बायिजिद, खोया है अपनी धुन में, पूछा लोगों ने, बायिजिद ये क्या, बोला बायिजिद अब क्या मस्जिद के चक्कर लगाना, अब मैंने पा लिया तो सोचा कि एकतारा बजाते है अब, उस अल्लाह से एकतार होकर|
हम जाने अपने आपको, सवाल करें अपने आप से, कौन हूँ मै, आत्मा के रूप में अपने अंश को डाला है उस परम ने हममें, कैसे भूल गये हम उस नींव को अपनी, उस जड़ को अपनी, जो संजीवनी है हमारे जीवन की, जो आज कही खो सी गई है, दिखती नही झलक हमारे जीवन में उसकी, जगाये उस प्यास को जिसे हम कहते है अभिप्सा, जिसके होने से ही उस अंश का सफ़र तय हो पायेगा, पहुंच पायेगा अंश अपने परम अंश के पास|
अहंकार की बोली बोलता हमारा व्यवहार हमारा शरीर निरन्तर शासित हमारे तूफान से भरे, कम्पन से भरे दिमाग में, कहाँ है वो हृदय जो भरा होना चाहिए एक प्रेम से, पहले सिर नही हृदय चाहिए और पहले ज्ञान नही, प्रेम चाहिए, अगर प्रेम से शुरुआत हो साधना की तो सफल यदि ज्ञान पहले आया तो निरे पंडित, कोई चैतन्य नही, सिर्फ दोहराव है, जागरण नही और इससे कही पहुचेंगे नही, हृदय में कोई कम्पन नही होता, हृदय तो हृदय है, आनंद की जगह है, इसमें बीज़ है साधना का, तू ज़रा गुलाब बो तो सही, बगीचा बना तो सही इसे, नही तो घास उग आयेगा, कर गुलाब बोने की तैयारी, समय कम है और यात्रा लम्बी |

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