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अमृतवाणी – ४

Abhivyakti
Abhivyakti
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आप कहते है, क्या है गंवारपन मनुष्य के जीवन में, उसका गंवारपन है उसका अज्ञान, एक ऐसा आधा अधूरा ज्ञान, जिसको वह जीवन भर ढोता है, वह कहता है अनुभवी अपने आपको, पर क्या ये तथाकथित अनुभवी अपने जीवन में किसी आनंद को अनुभव कर पाया है ? कहाँ है आनंद, अगर जानता हो जीवन को तो आनन्द का होना अनिवार्य है जीवन में, नही समझता ये मनुष्य कि जीवन सम नहीं, स्थिर नही, परिवर्तनशील है निरन्तर| अगर हमें किसी एक कमरे में रखा जाये और यदि हम रात की नींद में उठकर भी चले दे तो उसकी दीवार, दरवाज़े से हम चोट न खायेंगे, यदि कमरा ऐसा ही जिसकी दीवारें रात में बदल जाती हो तो हमारे बचने का कोई उपाय नही, ऐसा ही है जीवन, और हम अपने अनुभव का डंका बजाये चले जाते है और जीवन की यात्रा कही नही पहुंचती| ये है हमारा गंवारपन| अगर हम दीया जला ले भीतर का, फिर कितनी भी दीवारे बदले उससे क्या फर्क पड़ता है, जब बोध हो गया, दीपक जल गया तो अब क्या| विडम्बना यह है कि लोग पड़े है अहंकार के गड्डो में, आप कहते है जिसका दीया जल गया उसका क्या पाप, क्या पुण्य, लोग कहते है पाप से बचो, पुण्य करो, पर जब हम झांकते है भीतर अपने, तब पाते है कि चाहे पाप करने वाला हो या पुण्य करने वाला, दोनों ही अहंकार के गड्ढे में है | जिसका दीया जल गया वह बुद्ध हो गया| एक घटना बतायी आपने बुद्ध के बारे में| किसी व्यक्ति ने पूछा बुद्ध के अप्रितम सौन्दर्य को देखकर, आप कौन है, बुद्ध मौन रहे व्यक्ति बोला क्या आप स्वर्ग से उतरे कोई देवता है, उन्होंने न में सिर हिलाया, फिर पूछा क्या आप किन्नर है? किन्नर देवताओ से थोड़ी नीची कोटि, जो देवताओ के दरबार में संगीतज्ञ है, वे है | बुद्ध ने न में जवाब दिया, फिर पूछा क्या आप चक्रवर्ती सम्राट है, उन्होंने कहा, नही| क्या आप मनुष्य है या फिर वह भी नही, बुद्ध बोले, नही | व्यक्ति आश्चर्यचकित था, बुद्ध बोले “मै बुद्ध हूँ” बुद्ध का मतलब जागा हुआ, जो बुद्ध है, प्रबुद्ध है, जागा हुआ सिर्फ जागा हुआ होता है, उसके लिये ये जगत सपना है, क्या पाप, क्या पुण्य, सब सपना है, वह चोर का सपना हो या साधू का, आख़िरकार है तो सपना ही, जो बुद्ध है, वही धार्मिक है, वह एक मात्र पर्याय है धर्म का, सत्य का, सतचित्त का, वही ईश्वर है, वो हर चीज़ के मध्य में है, न इस दिशा से अति, न उस दिशा से, आज लोग रखते है उपवास, आप कहे उनसे न करे हिंसा अपने शरीर पर, जब वे कुछ नही खाते, निरंतर मन भोजन को याद करता, उस दिन को याद करता जब ये उपवास ख़त्म होगा आप कहे उनसे न ज्यादा खाओ, न उपवास करो, तो कहेंगे वे ये सम्भव नही क्योंकि मन अति मांगता है या तो बहुत ज्यादा खायेगा या बिल्कुल नही, अति के दोनों छोर, मध्य में रहना नही, लेकिन मन में जो दीया जला लेता है भीतर, मन को लगाता वैराग्य के मार्ग पर, तब ये मन अनुसरण करता चेतना का, उस अंश का, जो बिछुड़ा अंश है, टूटा टुकड़ा है उस परम की आत्मा का, जो निरन्तर धडकता हममे प्राण रूप बनकर| विडम्बना यह है कि हम जागृत नही है|
किसी ने मुल्ला नसीरुद्दीन से पूछा जीवन क्या है? वे बोले, साँसों का आना जाना| आज हमारी चेतना का चेताने की आवश्यकता है, नही तो हमारे और मुल्ला के जवाब एक होंगे | जब हम स्वस्थ नही होते तो पूरी जानकारी रखते है स्वास्थ्य के बारे में कि कैसे रहे स्वस्थ, क्यो, जरूरत क्या है जानने की, वो इसलिए कि आप कही न कही स्वयं ही अस्वस्थ है, अन्यथा स्वस्थ आदमी को क्या जरूरत जानकारी की, स्वस्थ आदमी वह है जो जानकारी ही न रखता हो शरीर के सम्बन्ध में| जब तक हमारे सिर में दर्द न हो तो क्या हमे सिर की याद आती है, नही| स्वस्थ व्यक्ति वह है जो “विदेह” है यानि शरीर से परे भुला हुआ शरीर को| संस्कृत में एक प्यारा सा शब्द है “वेदना” इसका अर्थ है दुःख, पर इसका दूसरा अर्थ है वेद-ना अर्थात वेद का ज्ञान एक ही सिक्के के दो पहलू है ज्ञान और दुःख, जिसने दीया जलाया भीतर का, वो इन दोनों से ऊपर है, वो है बुद्ध, वो है प्रबुद्ध, जागा हुआ, बोलता परमात्मा उसकी जुबान से, रोम रोम बोलता उसकी भाषा, कहता देख मै आ गया “साक्षात्”, साक्षी हो स्वयं का और दर्शन कर साक्षात् का |

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