Menu
blogid : 13285 postid : 755125

बोध यात्रा

Abhivyakti
Abhivyakti
  • 154 Posts
  • 32 Comments

महाभारत की कथा में पांडवों के अज्ञातवास के समय की एक घटना आती है जब प्यास लगी युधिष्ठिर को, उन्होंने भेजा अपने भाइयों को जल लाने के लिए एक सरोवर से, जब पानी भरने लगे तभी एक यक्ष की आवाज़ सुनी, जो श्रापित था, पेड़ पर मौजूद था, पहले मेरे प्रश्नों का उत्तर दो तब ही तुम यहाँ से जल ले जा सकते हो, सब भाइयों ने यक्ष की बात को अनसुना किया और पानी भरने के प्रयास में मृत्यु को प्राप्त हुए| अब युधिष्ठिर को चिंता हुई कि क्या हुआ, वह भी सरोवर पर पहुंचे और यही प्रश्न यक्ष का सामने था उनके, ये प्रश्न क्या था यक्ष का, प्रश्न था मनुष्य के जीवन में ऐसा क्या है जो सबसे बड़ा आश्चर्य है? युधिष्ठिर धर्मराज थे, उन्होंने उत्तर दिया मनुष्य जानकर भी जानता नही, सीखकर भी सीखता नही अपने अनुभवो से, बिल्कुल ठीक कहा युधिष्ठिर ने, यक्ष संतुष्ट था, उत्तर सही था| युधिष्ठिर के कहे अनुसार यक्ष ने चारो भाइयों को जिन्दा कर दिया और वह भी श्राप मुक्त हो अपने लोक को प्रस्थान कर गया, लेकिन ये प्रश्न आज भी ज्यों का त्यों खड़ा है| आज भी अनुभव से नही सीखता मनुष्य, रोज वही क्रोध, वही राग, वही द्वेष, फिर भी नही निचोड़ता इन अनुभवों से रस, नही सिखता इन अनुभवों से, तभी तो सिर्फ आवागमन के फेर में फंसा है, मुक्ति नही मिलती इससे, क्यों नही? ये जो अनुभव है, चाहे वह कैसे भी हो, उन्हें निचोडे हम, जैसे हम फूल का संग्रह नही कर सकते लेकिन यदि उनका इत्र निचोड़कर रखे तो सदियों भी ख़राब नही होगा| ये जीवन एक पाठशाला है, हर अनुभव हमे सिखाता है लेकिन हम सीखते नही, बोध को नही जगाते, तभी तो ऊपर का धन नज़र आता है हमे दिन रात दौड़ते उसके पीछे लेकिन जो भागवत धन, जो परम धन, लुट रहा है उसकी हमे याद नही आती, बोध नही आता |
मुल्ला नसीरुद्दीन की बीवी गुजर गयी, चार पांच ही दिन बीते थे, एक दोस्त बोला, मुल्ला मैं तुम्हारी परेशानी समझ सकता हूँ, कैसे जीवन कटेगा बगैर उसके, अब मुल्ला की बारी थी मुल्ला बोला मै जानता हूँ कि अनुभव पर आशा की विजय होती आयी है और ये आज भी होगा तुम जानते हो, पहली पत्नी से कोई सुख न मिला जीवन में, क्या पता दूसरी के आने से जीवन में सुख आ जाये, यही हम सब भी कर रहे है रोज, अनुभव से सीखते नही कुछ, बस जीवन भर हमारी सवारी दौडती रहती कई ट्रेनों में, एक में हमारा हाथ सवार एक में पैर, एक में सिर, दूसरे में दूसरा पैर| मैंने ऐसा इसलिए कहा क्योंकि जीवन में हम सिर्फ धन की ही नही, पद की, प्रतिष्ठा की, प्रशंसा की, प्रसिद्धि की, सब की यात्रा करते है, एक साथ दौड़ते रहते जीवन भर, पर एक बार जरा ठहर कर पलटे पन्ने अपने जीवन में या झाँकने की कोशिश करे तो पाएंगे कि आज तक न जाने कितने लोग इन्ही महलो, चौबारों, इन्ही मकानों, दुकानों में आये और खपे, क्या कुछ मिला किसी को, कोई एकाध ही ऐसा दिखता है जो जगा पाया अपने बोध को, जो निचोड़ पाया अनुभवों का इत्र और जीवन को भर लिया खुशबुओं से जगा कर स्वयं को, यात्रा कर गया समाधि की | मनुष्य के शरीर में नौ छेद है| आँख, नाक, कान, मुंह और ज्ञानेन्द्रियां, इन नौ द्वारो से ही संसार आता है हमारे भीतर लेकिन यदि परम धन की यात्रा करे तो दशम द्वार खुल जाता है वह भीतर की तरफ खुलता है कहते है पलटू
“दशमे द्वारे कोठी मेरी बैठा पुरुष अनादि”
करोड़ो में कोई एक होता पलटू और कबीर जैसा | बोध की परिणिति ही संन्यास है वो कहते है, जिसे अंत समय में बोध हो, याद हो प्रभु की तो आवागमन से मुक्ति, अब नही आना जाना होगा संसार में, इस मृत्यु लोक में लेकिन ये सम्भव तभी है, जब हमे हर पल ये होश रहे कि जाना है बुद्ध की शरण में, ये होश जब आने लगता है तो बार बार सावधान करते हम स्वयं को जैसे अन्दर से कोई जगाता हो, तोड़ने का प्रयास करता हो हमारी इस जन्म जन्मान्तर की बेहोशी को, सच ही तो है, कितने जन्म बीते, कितनी योनि भटके, जीवन चक्र घूमता जाता है कुम्हार के चाक की तरह, गोल गोल, लेकिन जब तन्द्रा टूटेगी तब एहसास होगा कि इतनी योनियां भोगी, पर मानव जन्म तो तभी आयेगा जब पुण्य फलीभूत होंगे, विशेष कृपा होगी उस प्यारे की| जब एक बार चाक नीचे चला जाता है तो पूरा घूमकर ही दोबारा ऊपर आता है, एक संदेश देता ये चाक, ये जीवन चक्र, ये अशोक चक्र | आज हम ढूढते शास्त्रों में मुक्ति और जो परमात्मा हर ओर से जीवन्त जीवन से ओत प्रोत, बिखरा हमारे चारो तरफ, उससे बेखबर है क्योकि बोध नही है हमें| हम जरा सोचे, कुम्हार मिट्टी से खिलौना भी बनाता और मूर्ति भी पर जब आप खिलौना देखते, तब आपके भीतर कही कोई चेतना या बोध का संचार होता नही, यदि मूर्ति को देखते तो झट याद आ जाती, बोध जग जाता उस प्यारे का, वही मिट्टी है जिससे दोनों बने खिलौना और मूर्ति लेकिन फर्क है, इसी प्रकार हम भी है, परमात्मा ने हमे भी बनाया उस मिट्टी से, नवाज़ा उस मालिकियत से अपनी हर किसी को पर कोई बिरला ही उस अंश को, उस परम अंश से मिला पाया अन्यथा तो सब मिट्टी, न बोध जगाया अपना, न जागृति, कोरे मिट्टी बन के जिये, बाहर की यात्रा के यात्री बने और मिट्टी में ही मिल गये, कोई निशान नही, कोई छाप नही छोड़ी उन्होंने जमाने पर अपनी, न पायी सदगति |

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply