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बोधयात्रा-2

Abhivyakti
Abhivyakti
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एक बार बुद्ध गुजरे नदी के पास से, देखा बच्चे खेल रहे है, बना रहे है रेत के घर| उन्होंने अपने उन रेत के घरो को बनाया, उसकी सीमाएं बनायी, दीवारे बनायी बड़ी मेहनत से, हर बच्चा अपने घर को बड़ी तल्लीनता से बना रहा था ऐसे, जैसे ये सदा रहने वाले हो, इतने में एक बच्चे का पैर दूसरे बच्चे के घर पर पड गया, दूसरा बच्चा चिल्लाया, तूने मेरा घर तोडा, वो कहने लगा अपने साथियों से, आओ हम सब मिलकर इसे दुरुस्त करे, नही तो ये कल तुम्हारे घर भी तोड़ेगा, सब बच्चो ने उसकी मरम्मत कर दी| बुद्ध चुपचाप दूर खड़े थे, दिन बीता, सांझ ढली नौकर ने आवाज़ लगायी, बच्चो घर चलो, मातायें बुला रही है, बच्चो का ये सुनना भर था कि उन्होंने जो घर बनाये थे खुद ही अपने पैरो तले रौंद दिये| बड़ी प्रतीकात्मकता से भरी कथा है ये| ये घटना बुद्ध ने अपनी भिक्षुओ को अगली सुबह बतायी और सार भी, ये संसार भी ऐसा ही है, हम जन्म लेते है, एक नयी सुबह आती है और फिर संसार आता है, फिर ढल जाती है शाम, संदेशा आ जाता है, विदाई हो जाती है, पर क्या पाया, कुछ भी तो नही, ये घर जो बनाये, ये दुकाने जो बनायी, ये रिश्ते जो बनाये, ये राग जो बनाया संसार से, क्या मिला इससे? कहते थे गुरु जी मुर्दे तो बेबस है मरने के लिये, तरस तो जिन्दो पर आता है जिन्होंने जिन्दगी जी कर भी नही जी, कुछ भी बांटा नही, जो आनन्द दिया उस परम ने, न लूटा न लुटाया, बस यूँ ही आये और यूँ ही गये, याद रहे
जीवन में पीछे देखो तो अनुभव मिलेगा
आगे देखो तो आशा मिलेगी
दायें बायें देखो तो सत्य मिलेगा
स्वयं के भीतर देखो तो परमात्मा मिलेगा
विडम्बना यह है कि हम पकड़ नही छोड़ते, पर जो पकड़ा हुआ है, उसे छोड़ देते है| संन्यास क्या है, संन्यास भागना नही है संसार से बल्कि ये है कि संसार में रहते है ऊपर ऊपर से, भीतर संसार नही है, भीतर दीया जला लिया है वैराग्य का, आज कहते है संसार छोड़ो, छोड़ दिया घर बार, पर आगे क्या किया, आश्रम पकड़ लिया, छोड़ा परिवार बच्चे, पकड़ लिया शिष्यों को, पहले जो पीड़ा, जो मोह अपने बेटे से था, आज वो शिष्य से है| ये क्या हुआ? हुआ यह कि लेबल बदल गया, बाकी सब पहले जैसा है, जो पकड़ा था उसे छोडा लेकिन क्या पकड़ छुटी, नही, वो तो वैसी की वैसी है, सिर्फ वैशभूषा बदली है हमारी, क्या हम बदले, नही, हम तो वैसे ही है बल्कि पहले दुविधा कम थी, अब ज्यादा है, पहले ऊपर से अंदर से एक जैसे थे, लेकिन अब ऊपर से संन्यासी लगते हो लेकिन अन्दर नगर बस गया है, संसार बस गया है, सारे राग ज्यों के त्यों है, और कही न कचोट बढ़ गई है कि क्या नकलीपन है, ये कचोट हमेशा चिकोटी काटती रहती रात दिन | लोग कहते है संन्यास का फल मधुर है, फिर इसे सब लोग क्यों नही चखते | विडम्बना यह है कि लोग पहले इस बात को निश्चित कर लेना चाहते है कि फल कडवा नही, मीठा है, वो भी दूसरे के द्वारा, स्वयं नही चखना चाहते पहले |
मुल्ला नसीरुद्दीन को एकाएक शौक चढ़ा कि तैराकी सीखनी है, गए नदी पर घबराये, भयभीत से सीढियों पर पैर रखा, फिसले और चारो खाने चित्त, सिर में चोट भी लगी, जैसे तैसे उठे और घर की तरफ भागे, सिखाने वाला कहता रहा रुको तो सही, जब तक उतरोगे नही पानी में, तो सीखोगे कैसे, बोला, नही है सीखना, जब तैरना सीख लूँगा, तभी नदी पर आऊंगा, पर ये कैसे सम्भव है, तैराकी सीखने के लिए तो पानी में उतरना ही होगा, अतएव संन्यास का फल मधुर है या कडवा, यह तभी पता चलेगा जब संन्यास ले लेंगे हम, पहले नही, ये हिम्मतवरो का काम है, जो शून्य कर सके स्वयं को, स्वयं में अहंकार को | वैसे हमे शून्य करना क्या है, हम तो स्वयं ही मिट्टी है, हम तो पहले भी ऐसे ही थे, आज भी ऐसे ही है, लेकिन आज भूल गये है स्वयं को, समझ बैठे है जैसे ये जीवन सदा रहने वाला है और ये संग्रह सदा से उनका है, साथ जायेगा, पर ऐसा कभी हुआ है क्या, नही| ऐसा इस मृत्युलोक में सम्भव ही नही, मिट्टी है हम, मिट्टी में ही जाना है, पर यदि इस मिट्टी से ही बने शरीर को महका ले उस परमानंद से तो हो जाएगी ये मिट्टी की काया भी साथ साथ उस अंतस भी हो जायेगा पूजा योग्य, मिट्टी का शरीर कही न कही प्रतिमूर्ति होगा उस परम की, जैसे मिट्टी से खिलौना बने या भगवान की प्रतिमा, खिलौना हमारे मन में भाव नही जगाता लेकिन उस साँवले की सूरत जगा देती है हमे भीतर से और छवि बस जाती है आत्मा की परतो में, दीया जला देती है उस गहन अंधकार में, प्रकाशित हो जाता है, जागृत हो जाता है अंतर्मन, यात्रा शुरू हो जाती है निर्वाण की |

जीवन के दो छोर है जन्म और मृत्यु और इसके बीच एक ऐसी कड़ी है जो हर क्षण हर पल साथ है हमारे, वह है हमारी साँसे| सूफी फ़कीर फरीद के पास एक व्यक्ति आया, बोला, परमात्मा के दर्शन करने है, नदी किनारे बैठे थे मस्त फरीद अपनी मस्ती में, बोले, स्नान कर लो, व्यक्ति समझा नही, बोला, स्नान कर लो से मतलब आपका, बोले फरीद, हम दोनों स्नान कर लेते है, हो सका तो स्नान में या स्नान के बाद परमात्मा के दर्शन करा दूंगा, व्यक्ति उलझ सा गया जैसे तैसे मन बना के उतरा नदी में स्नान के लिए, फरीद मस्त मलंग फकीर थे, अच्छी कद काठी, जब स्नान कर रहा था वह व्यक्ति, उसकी गर्दन पकड़ ली कसकर, व्यक्ति छटपटाया पर पकड़ जोरदार थी, व्यक्ति छटपटा रहा था कि कैसे सांस आये, अब पूरे दम से गरदन छुड़ाने का प्रयास करने लगा | बीच बीच में ये कहता रहा कि ये क्या कर रहे है आप, प्रयास काम आया, गरदन छूट गयी, व्यक्ति हैरान परेशान था, नदी से बाहर आया, पूछा फरीद ने परमात्मा मिला, व्यक्ति बोला, यहाँ जान जाने के लाले थे, आपको परमात्मा की पड़ी है, फरीद बोले, नही, मिला था वह तुमसे, जरा गौर करो, याद करो उस क्षण को, जब तुमने पूरी ताकत से गरदन छुड़ाई, वो पराकाष्ठा थी जीवन को बचाने की, जिन्दगी की चाह की, तब तुम तुम न थे, भूल गये थे सब, तभी मिला परमात्मा, जब चाह और चाहने वाले का भेद मिट जाये|
एक गाँव की एक महिला गर्भवती हो गयी, एक नाजायज़ बच्चे की माँ कहलाने की बात सोचकर कांप गयी भीतर से, समाज के डर से एक बात सूझी उसे, उसने गाँव के बाहर रहने वाले एक फ़कीर को इस बच्चे का पिता बताया, पूरा गाँव इकट्ठा होकर पहुंचा फकीर के पास, बुरा भला कहा उसे और बस थोडा सा ही फासला था कि हिंसा हो जाती उस फकीर के साथ, फकीर शांत था सिर्फ एक ही वाक्य बोला “ऐसा है क्या” | सब गाँव वाले लौट गये, जब वह महिला रात बिस्तर पर लेटी तो सोचते सोचते व्याकुल हो गयी कि ये मैंने क्या किया, एक निर्दोष फकीर को कलंक लगवा दिया, पूरी रात सो न सकी, सुबह सारा वृतांत कह सुनाया घर वालो को, ग्लानि हुई, शर्मिंदगी हुई, पूरे परिवार को, पूरा परिवार सुबह पहुंचा फकीर के झोपड़े पर, कहा क्षमा कर दे, बहुत बड़ा पाप हो गया हमसे, अगर आपने क्षमा न किया तो हमारा प्रायश्चित न हो सकेगा, फकीर चुप थे, सिर्फ इतना बोले “ऐसा है क्या” क्योकि जीवन जीते थे, अपने आपको शून्य मानकर, साधना शून्य की करते थे और अब यात्रा पूरे जोरो पर थी शून्य की, जो शून्य में जीता है वो आज में जीता है, अभी भी में जीता है, क्या भोग और क्या विराग सब एक बराबर शून्य जैसा |

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