chintan
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लोकपाल के आंदोलन से,
एक मसीहा आया था |
जनता की खाली ड्योढ़ी पर,
आशा का दीप जलाया था ||
जब आंदोलन से हटकर,
उसने कुनबा अलग बनाया था |
दिल्ली ने आगे बढ़कर उसको,
अपने गले लगाया था ||
उसके हर एक फैसले का,
जनता ने पूरा मान दिया |
भ्रस्टाचार मिटने के हित,
सत्ता का वरदान दिया ||
पर इस कुनबे की खीच-तान,
ज्यों घर से बाहर आयी है|
जनता की उम्मीदो पर इक,
शंका की बदली छायी है ||
क्या राजनीति में शुचिता की,
बातें इनकी बेमानी थी |
इनको आंदोलन के रथ पर चढ़,
बस सत्ता हथियानी थी |
वो नयी व्यवस्था की बातें,
क्या सचमुच पीछे छूट गयी|
सस्ते मोती की माला थी,
बस हिचकोलों से टूट गयी ||
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