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माँ मुझे डर लगता है…
बहुत डर लगता है… माँ
सूरज की रौशनी आग सी लगती है
पानी की बूंदे तेजाब सी लगती हैं …
माँ हवा में भी ज़हर सा घुला लगता है .
माँ मुझे छुपा लो बहुत डर लगता है।।।
माँ याद है वो काँच की गुडिया जो बचपन में
टूटी थी …
माँ कुछ ऐसे ही आज मै टूट गयी हूँ ..
मेरी गलती कुछ भी ना थी
माँ फिर भी खुद से रूठ गयी हूँ …
माँ बचपन में स्कूल टीचर की गन्दी नज़रों से
डर लगता था।।।
पड़ोस के चाचा के नापाक इरादों से डर
लगता था।।।
माँ वो नुक्कड़ के लड़कों की बेखौफ़ बातों से डर
लगता था।।
और अब बॉस के वहशी इशारों से डर लगता है।।
माँ मुझे छुपा लो बहुत डर लगता है।।।
माँ तुझे याद है तेरे आँगन में चिड़िया सी फुदक
रही थी ..
ठोकर खा के मै जमीन पर गिर रही थी
दो बूँद खून की देख के माँ तू भीरो पड़ती थी
माँ तूने तो मुझे फूलों की तरह पला था
उन दरिंदों का आखिर मैंने क्या बिगाड़ा था क्यूँ
वो मुझे इस तरह मसल कर चले गए
बेदर्द मेरी रूह को कुचल कर चले गए ..
माँ तू तो कहती थी की अपनी गुडिया को मै
दुल्हन बनाएगी
मेरे इस जीवन को खुशियों से सजाएगी।।
माँ क्या वो दिन जन्दगी कभी ना लाएगी ..
माँ क्या तेरे घर अब बारात न आएगी …?
माँ खोया है जो मैंने क्या फिर से कभी न
पाऊँगी…?
माँ सांस तो ले रही हूँ
क्या जिन्दगी जी पाऊँगी …?
माँ घूरते हैं सब अलग ही नज़रों से ..
माँ मुझे उन नज़रों से छुपा ले
माँ बहुत डर लगता है मुझे आँचल में
छुपा ले …
साभार : आज मैनें ये कविता कही पढ़ा और जब मैनें इसे पढ़ा तो लगा की आपको भी एक बेटी के दर्द से अवगत कराऊं . इसलिए मैंने ये कविता अपने ब्लाग में लिखा हैं.
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