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हिन्दी बनाम सितम्बर मास
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अपनी चतुष्पदी से ही बात शुरू करता हूँ |
“खेद नहीं स्वर्ग की अभिलाषा में, घोर नर्क जिया है मैंने |
देश में हिस्से नहीं हिस्सेदारी का, सरल तर्क दिया है मैंने |
जब किया समवेत का मन्त्र जाप, एकता की उपासना में ,
हिन्द को मथकर “सुशीरंग”, हिन्दी का अर्क पिया है मैंने |”
याद कीजिये साठ, सत्तर, अस्सी तथा नब्बे के दशक | आज के सठियाये हुओं का वह समय था जब हम पूरे पट्ठे थे | कस्बों और गावों के हम किशोर और जवान हिन्दी के आकर्षण में गिरफ्तार थे | यह गिरफ्तारी उतनी ही अच्छी लगती थी जैसे किसी के प्रेम में पड़ना | हमारे प्रेम प्रकरणों में “हिन्दी” की बड़ी ख़ास भूमिका हुआ करती थी | इनमें प्राप्त आंशिक सफलता हमारा वह विश्वास बन गयी थी, जिसके बल पर हम नौकरी की वैतरणी को पार करने का संकल्प लिए बैठे थे |
इस तरह “स्वर्ग की अभिलाषा यानि जीवन में रोजगार तथा परिवार सेवा जैसी बड़ी सफलताओं के लिए हिन्दी सहायता करने में कमजोर महसूस हुई |” नौकरी की स्पर्धाएं, सामाजिक प्रतिष्ठा, बौद्धिकता का आतंक आदि, इनके हिन्दी में समाधान सामाजिक व्यवस्था में “प्रभु वर्ग” द्वारा स्वीकार नहीं किये जा रहे हैं |
श्री आलोक श्रीवास्तव, सम्पादक, “अहा ! ज़िंदगी ” ने तो यहाँ तक कहा है कि “बात बहुत स्पष्ट है भाषा का युद्ध यह राष्ट्र हार चुका है | यह अपनी भाषा खो चुका है |”
दो कारण उन्होंने बतलाये हैं, मैं उन कारणों को कुछ उनकी और कुछ मेरी बुनावट में रख रहा हूँ :-
1. भारत की विशाल हिन्दी पट्टी के सांस्कृतिक व शैक्षणिक विकास के मुद्दे को “हिन्दी राष्ट्र-भाषा” के प्रश्न के अवसरवादी तथा छद्म प्रदर्शनवादी स्वार्थ निहित आयाम में जान बूझकर परदे के पीछे ले जाया गया है |
2. अहिन्दी भाषी प्रदेशों में उनकी अपनी भाषा की एक समृद्ध सांस्कृतिक संरचना है, जिसे वे बहुत प्यार करते हैं | यह बात भारतीय सामासिक संस्कृति का एक अटूट हिस्सा है | उस क्षेत्र तथा उस क्षेत्र के रहवासियों में ‘हिन्दी राष्ट्र भाषा’ को एक जल्दबाजी और एक दबाव की बजाय उनकी जरूरतों के समाधान के रूप में प्रस्तुत की जानी चाहिए परन्तु इसके भी पहले उन क्षेत्रीय, आंचलिक भाषाओं की हिन्दी पट्टी में स्नेह एवं आदरपूर्वक शिक्षा की व्यवस्था होनी चाहिए | उन भाषाओं के वाङ्गमय, दार्शनिक कृतियों, कला व काव्य यानि सभी विधाओं पर उपलब्ध शाब्दिक दस्तावेजों का हिन्दी द्वारा सत्कार (अनुवाद, समीक्षा, प्रेरणाओं आदि को लिपिबद्ध करना) होना चाहिए | हम भारतीयों की सामासिक समानता और एकजुटता के लिए यह वक़्त के इस दौर में अनिवार्यतम कदम है |
हमारे देश के आधे लोग मतलब लगभग साठ करोड़ वाशिंदे अपने समस्त अच्छे बुरे भावों, सरोकारों तथा आस्थाओं को हिन्दी में ही प्रकट करते हैं और हिन्दी में ही ग्रहण करते हैं | यह आंकड़ा कितना गौरवपूर्ण है, पता नही |तड़पाने वाली बात यह है कि ये साठ करोड़ लोग “वंचित वर्ग” के हैं जो व्यवस्था का निर्णयकारी तबका नहीं है |
हिन्दी की भूमिका इन लोगों को सूचना और ज्ञान संपन्न करने की है | देश की मुख्य धारा में इस तबके को लाने की जिम्मेदारी “हिन्दी” की है | यह तब संभव है जब प्रभुता के समस्त स्त्रोतों, साधनों, निकायों, संस्थानों, प्रतिष्ठानों एवं संस्थाओं में ज्ञान हिन्दी में अंतरित हो जाए |
वंचितों में से प्रतिभा और पीड़ा संपन्न लोग जो अतीत की चुकी (थकी) और चूकी (भटकी) आस्थाओं में रमकर प्रज्ञता (अक्लमंदी) से अपना नाता तोड़े बैठे हैं, उन्हें अपने अनौचित्य पूर्ण, असंगत हठ को छोड़कर नवीन आधुनिकतम वैज्ञानिक अवधारणाओं के अनुरूप अपने ठेठ सांस्कृतिक निहितार्थों और मंतव्यों की स्थापना करने की चुनौती स्वीकार करनी पड़ेगी |
कैसे ???
1. दुनिया के श्रेष्ठतम को हिन्दी में लाकर |
2. भारत के श्रेष्ठतम को हिन्दी में लाकर |
3. भारत के श्रेष्ठतम को अंगरेजी में लाकर |
4. भारत के श्रेष्ठतम को अन्य विदेशी भाषाओं में लाकर |
व्यवहार में यह इस तरह अपने परिणामों में दिखेगा –
1. सभी प्रशासनिक परीक्षाओं तथा ऊंची नौकरियों की परीक्षाओं का माध्यम हिन्दी होगा |
2. सभी अनुसंधान कार्य (विज्ञान,तकनीक, दर्शन, कला, साहित्य) हिन्दी में होंगें |
3. सभी शिक्षा संस्थानों का शिक्षा तथा कार्यालयीन कार्य हिन्दी में संपादित होगा |
4. सभी सत्ता व शासन प्रणाली की कार्य निष्पादन भाषा हिन्दी होगी |
मैं आपका ध्यान इस गंभीर बात पर लाना चाहता हूँ कि “हिन्दी में जो सोचते हैं वे अपनी समग्र सोच हिन्दी में ही तो जाहिर कर पायेंगें ना ? इस चुनौती में कोई दूसरा विकल्प है ही नहीं |”
अपनी चतुष्पदी से यहाँ बात रोकता हूँ –
“दुविधायें विसर्जित कर तू गोमती में कालिंदी में |
जीवन की निर्मलता तो सजती बस गोविन्दी में |
अज़ान की निष्ठा हो या जयजयकार का समर्पण,
कर दे भजन व ग़ज़ल के उत्तराधिकार हिंदी में | ”
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हमेशा की तरह आपकी टिप्पणियों के इंतज़ार में |
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