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अक्सर कहानी में दृश्य और पृष्ठ भूमि का वर्णन होता है। इस कहानी में पात्रों के सिर्फ संवाद से ही दृश्य और पृष्ठ भूमि को पाठकों के मन में पहुंचाने की कोशिश है। भाषा, पात्रों के चरित्र को ध्यान में रखकर इस्तेमाल की गयी है। आप पायेंगे कि एक शीर्षक के तहत दो कहानिया हैं, दो कथानक हैं। दोनों कथानक एक-दूसरे की अपील हैं।
बाबा के बेटे नेहरू को आखर ज्ञान है| 13 बरस का हो रहा है, कभी-कभी स्कूल भी जाता है| अखबार भी अटकते-अटकते पढ़ लेता है| एक बार पढ़ लेने के बाद फिर अच्छे से बाबा को समझाता है, बिना अटके| अब तो बाबा भी उस अखबार के दूसरे नंबर के कागज़ पर नीचे की तरफ फोटू देख लेते हैं| मय्यत उठाने की टेम वाली अलग| किरिया-करम के बाद दुखोटा बांधने आने वालों के लिए तारीख की अलग| सुरगवासी को पहली बार याद करने की या दूसरी, तीसरी, चौथी बार याद करने की फोटू अलग| पचीसवीं बेर की भी छापी कई झन ने | बाबा सोचते हैं, बड़ी अच्छी बात है- दूर वालों को खबर हो जाती है, सामिल होकर नहीं रो पाए, तो अपने-अपने ठीये पर रोना हो जाता है |
बाबा को बड़ा रोष आता है। ये पेपर बड़े सहर में छपता है। उनके यहां की गमी का पता सब को हो जाता है| हमारा ये मरघटान भी तो चार-चार गांव गोठान का है| जिस दिन पिरान निकले, उसी दिन कई का किरिया करम नहीं हो पाता। कभी अस्पताल की झंझट, तो कभी पुलिस का बखेड़ा| इन चार-चार गावों की देर-सबेर होने वाली आखरी बिदाई का, अरे, पता लग जाए, तो थोड़ी बहोत सहूलियत हमको भी ना हो जाय ? बड़ी मसक्कत का काम है, लकड़ी छाटना| सिर के पास वाला और छाती पर रखने वाला लक्कड़ तो ख़ास किसिम का ही लेना पड़ता है|
ये पंचायत बाबू और सरपंच अगर ठान लें, तो इस गांव का पेपर निकल सकता है। कुछ नहीं तो यहां के निर्जीव अदमी का फोटू तो वुहां सहर में भेज सकते हैं और अगले दिन पेपर देखकर उस टेम के वास्ते हम तैय्यार हो जायेंगे|
नेहरू को बोलो तो हँसता है |
आज तीसरा दिन है, पानी की झड़ी बंद होने का नाम नहीं ले रही | हाट से उधार लेने गया तो दुकानदार बोलता है- दाल-चावल सब ख़तम| तैसील का दुकानदार बंद नोट से हलाकान है | गाँव के दुकानदार से पांच सौ का लेता ही नहीं | मेरे भाग में इस्वर ने पक्के में लिक्खा है, “दूसरे के घट से निकले पिरान मेरे परिवार के घट में बसे पिरानों की रक्छा करते हैं |” आज तीसरा दिन है। चारों गांव के किसी भी डोकरा-डोकरी के जरजर घट से पिरान निकल कर “राम नाम सत” नहीं सुनाई दे रहा|
बाबा की सोच दूसरी तरफ निकल गयी| सूखे दिन होते, तो नेहरू की पतंग ही बिक जाती | नेहरू के हात में बड़ी कला है। अर्थी के बांस को फाड़कर बड़ी सुथरी कमची निकालता है| खूब नवाती है, खूब झुकती है, खूब मुड़ती है| अच्छी सानदार पतंग बनती है| उस पर राम के आखर काटकर चिपका देता है पर लोग फिर भी खरीदने से डरते हैं। अर्थी के बांस की होती है ना इस्सलिये| कुछ बिक जाती है तो दो पैसे आ जाते हैं| नेहरू खूब बिचार करते रहता है कि क्या कला डाली जाए कि पतंग बिक जाए, भले ही सबको मालूम है कि कमची सीढ़ी की है| नेहरू बोलता है- “बाबा लोग मूरख हैं, समझते नहीं, अरे जब ये बांस आदमी को सबसे ऊपर ले जाने की सीढ़ी बन जाता है, तो सोचो पतंग भी तो ऊपर ही जायेगी |”
नेहरू, उसकी महतारी और वह सब मिलकर हंसते हैं |
आज बाबा को भजन मंडली की भी याद आ रही है| दो दिन हो गए, भूखा रहने से कमजोरी भी आ गयी है, ढोलक नहीं बजा पायेगा, थक जाएगा| उसने अपनी कंठी माला को पूजा भाव से छू लिया| अच्छा लगा| भगवत भजन करता है| वो भी ग्यानी है| उसकी पसंद का भजन है- देख तमाशा लकड़ी का…
बाबा के चौकन्ने कानों में हल्की, बहोत मंद-मंद राम धुन की आवाज आ रही थी| तभी दौड़ता, हांफता नेहरू सामने आकर रुका|
“बाबा, अरे वो ई है| पेपर में जिसकी बड़ी जात फोटू थी| बाबा, जुलुस से भी बड़ा जुलुस है, जुलुस का बाप ! बाप रे कितने सारे अदमी हैं|”हांफते हुए नेहरू बोला |
“तेरे भजन मंडली से बड़ी उनकी संगीत पार्टी है|” नेहरू खुशी और अचरज को सम्हाल नहीं पा रहा था|
नेहरू ने बाबा को पकड़कर खड़ा किया| वे खड़े हो गये| थकावट गायब| रोजी आ गयी, तो रोटी भी आ जायेगी| साफ़-साफ़ सुनाई दे रहा- रघुपति राघव राजाराम…
आ गया पूरा जुलुस अन्दर| जुलुस क्या, जत्रा लग गयी, गीत संगीत, बातचीत, अर्थी के सब तरफ सुगंध ही सुगंध| लोग सफ़ेद झक्क कपड़ों में| गाँव के लाला महावीर परसाद बड़ी दुकान वाले उनके ताऊ जी के बेटे हरी परसाद की आखरी बिदाई हो रही है| नेहरू से बाबा ने कहा- बड़े अदमी हैं, देख बरखा बंद हो गयी।
हरी परसाद जी के मस्तक पर चन्दन और लाल तिलक, देह पर रेशमी सफ़ेद चमचमाता चिकना कपड़ा| सलवटों पर बारिश की बूंदें, उन पर झांकती सूरज की नरम-नरम किरणें| बाबा ने नेहरू से फिर कहा- पूरनमासी की रात में नदिया की लहर ऐसे ही चम चम करती है, बहोत बड़े अदमी लगते हैं, परनाम कर ले| बाबा ने खुद भी परनाम किया|
फ़टाफ़ट सब हो गया| दो घंटों में सब ख़तम| नेहरू और उसके बाबा को हमेशा से बहोत जादा नोट मिले| फिकर मिट सी गयी|
आखरी विदाई में एक बुजुर्ग, चिता से फासले पर खड़े हो गए| सब लोग उनके आसपास जमा होने लगे|
अग्नि देने वाला नेहरू से बोला- वो दूर वाला अकेला टप्पर तेरा है ?
नेहरू ने सर ऊपर नीचे हिलाया|
तभी एक सफ़ेद पोसाक वाला अग्नि देने वाले के पास लपककर पहुंच गया| दोनों ने नेहरू को चलने का इशारा किया|
वे तीनों टप्पर के पास पहुंचकर रुक गए|
बुजुर्ग के आसपास भीड़ जमा हो चुकी थी| वे बोल रहे थे- दिवंगत हरी प्रसाद जी के समाज पर अनेकानेक उपकार हैं| वे साधारण संपन्न नहीं थे, असाधारण संपन्न थे, असाधारणता यह कि विपन्न जनों के लिए उनके हाथ तथा द्वार हमेशा खुले रहे| महिलाओं के लिए वे अत्यंत सहृदय रहे| इस गांव से निकलकर वे हमारे शहर में आये, एक छोटी सी कफ़न की दुकान से शुरुआत की| आज वह दुकान मृत्यु से सम्बंधित इवेंट मैनेजमेंट के लिए कफ़न और क्रिया कर्म पूजन सामग्री की एक भव्य दुकान है, जिससे राजधानी तक में हमारे शहर की पहचान है| देश के समस्त वीवीआईपी इस दुकान…|
आवाज मद्दी होकर बंद हो गयी, क्योंकि लम्बे-लम्बे डग भरके बाबा नेहरू के बगल में आकर खड़े हो गये|
अग्नि देने वाले ने नेहरू से पूछा- क्या नाम है ?
नेहरू कुछ सकुचाया |
बाबा ने जवाब दिया- नेहरू… भगवान जी|
नेहरू बीच में ही जल्दी-जल्दी बोला- ये मेरे पिताजी है… सबको भगवान ही बोलते हैं और मेरा नाम नेहरू है|
वे दोनों एक-दूसरे की ओर देखकर खदबदाये- नेहरू ? और ठठाकर हंस पड़े|
तब तक साथी के जेब से निकलकर शराब की अधभरी शीशी खुलकर हवा में अपनी गंध फैला चुकी थी|
अग्नि देने वाले ने रेशमी धोती की कमर पर पडी चुन्नट से काफी सारे नोट निकाले| एक पचास का नोट बाबा के हाथ में देकर कहा- पानी ? आगे पूछा- कितनी उम्र है ?
नेहरू के बाबा ने हाथ में थामे नोट को देखकर कहा- भगवान… पचास|
वे दोनों फिर खिलखिलाने लगे – पचास।
तब तक बाबा पानी लेकर आ गए और पीछे-पीछे नेहरू की महतारी भी, जोर से आवाज लगाते हुए – नेहरू ?
सौतेली मां है पर पल भर के लिए भी नेहरू का आंख से दूर होना उससे बर्दाश्त नहीं होता|
दो अन चिन्हे लोगों को देखकर ठिठक गयी|
अग्नि देने वाले और उसके साथी ने नेहरू की महतारी को आंखें गड़ा-गड़ाकर ऊपर से नीचे तक ताका|
कौन है ? अग्नि देने वाला चहका|
मेरी मां | जवाब देते हुए नेहरू तन गया|
बहुत छोटी है बहुत सुन्दर भी| यह बोलकर अग्नि देने वाला अपने साथी की तरफ पलट गया|
दोनों ने बारी-बारी से बोतल में ही पानी डाली हुयी शराब गटक ली|
मां-बेटे की उम्र मिलाकर इसके बराबर होती है| रखो भगवान| यह कहकर एक पचास का नोट बाबा के हाथ में ठूंसा|
दोनों पलटकर उधर निकल गए, जिधर वे बुजुर्ग भीड़ के सामने लगातार बोले जा रहे थे|
अग्नि देने वाला साथी को बतला रहा था- क्या ले गया साथ में बुड्ढा ? अरे मुझे बेदखल करके उस चुड़ैल का घर भरना चाहता था| करके तो देखता शादी उससे| गोलियां उतार देता, दोनों में |
साथी बोला- जल गयी आज चिता।
अग्नि देने वाला बड़बड़ाया- जल गयी| कफ़न खसोट कहीं का| इस बेदखली का मालिकाना दखल अब दुनिया देखेगी| उसकी चिता जली, मेरा चूल्हा सुलगा|
ये तीनों औचक टप्पर के सामने खड़े थे| बाबा उस आख़िरी पचास के नोट को हाथ में लेकर गुमसुम खड़े थे|
नेहरू की महतारी ने बाबा के हाथ से वह पचास का नोट लेकर चिंदी-चिंदी कर हवा में उड़ा दिया और बोली– चिता जले…
…तो चूल्हा जले| बाबा और नेहरू बोले|
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