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तिरछी नज़र

सुनो दोस्तों
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तिरछी नज़र

दैनिक भास्कर दिनांक 03 जनवरी 2017(सिटी भास्कर मध्य पृष्ठ) पर एक सनसनीखेज शीर्षक “पृथ्वी आज सूर्य के सबसे समीप फिर भी होगा ठंडी का अहसास” देखने को मिला | धरती की सूरज से बड़ी क्लोज मुलाक़ात इससे ज्यादह क्लोज वे हो भी नहीं सकते | कायनाती मज़बूरी है |

03 जनवरी 2017 को मतलब आज धरा और भास्कर के बीच फासला 14.75 करोड़ किलो मीटर रहेगा जबकि 04 जुलाई 2017 को यह जालिम फासला 15.25 किलो मीटर होगा | गोया कि 15.25 किलो मीटर जालिमाना बर्ताव की तयशुदा हद है , सौर मंडल में जालिम और मेहरबान होने की भी हद मुक़र्रर है, एक आचार सहिंता है जिसका सभी ग्रह नक्षत्र तारे सितारे ख़ास शिद्दत से पालन करते हैं , इससे इंसान और सितारों के बीच की खासियत भी उजागर हो जाती है कि मनुष्य के पास भी आचार संहिता की तर्ज़ पर एक संविधान होता है | इसमें भी हदें तय होती हैं पर ये तोड़ने के लिए होती हैं, इसीलिये मनुष्य बेइंतहा ऊपर उठता रहता है और यकीन न हो इतना गिरता रहता है | खैर, कहाँ बिचारे सूरज धरती व चंदा और कहाँ खुदा का ये खासम ख़ास अजीज बन्दा जिसको इंसान बोला जाता है |

साईंस कहता है पृथ्वी को ठण्ड या गर्मी का अहसास सूर्य की किरणों में झुकाव पर निर्भर करता है | जितनी झुकी या तिरछी किरणें उतनी शीतलता चाहे कितने भी नज़दीक हो पर गरम नहीं हो सकते, क्यों कि किरणें तिरछी जो हैं | उल्टा भी है कि अगरचे किरणें कम तिरछी या लगभग सीधी सी हैं तो गर्मी ही गर्मी चाहे फासला कितना भी लम्बा क्यूं ना हो ! कमाल तो तिरछेपन का ही है | जितना तिरछा उतना शीतल |

हाँ, एक बात तकनीकी तौर पर भेजे(ब्रेन) में सम्हालकर पूरी सावधानी से रखनी पड़ेगी कि किरण जो एक रोशनी की सीधी सच्ची लकीर होती है, वो वास्तव में ग्रह नक्षत्र तारे सितारों की दृष्टि है, नज़र है और आदमी के जात की जो नज़र अथवा दृष्टि होती है, वह उसकी किरण होती है |

ठीक है ?

अरे यार; अब बीच में गरियाओ मत | जब ‘स्वच्छ भारत’ समझ सकते हो तो ये कौन बड़ा मुश्किल है | चलो तुम्हारी सहूलियत के लिए ऐनक के एक कांच पर “सीधी नज़र” लिख देते हैं तथा दूसरे कांच पर “तिरछी नज़र” | अब तुमने जैसे “स्वच्छ” को अलग समझा और “भारत” को अलग समझा क्यों कि जहां स्वच्छ है वहां भारत कैसे होगा तथा जहां भारत है वहां स्वच्छता का क्या काम ? वैसे ही “तिरछी नज़र” को एवं “सीधी नज़र” को अलग अलग करके समझ लो |

चलो, तिरछी नज़र पर लौटो, याद करो जब तुम ताजे ताजे जवान हुए थे, क्या ? अरे भैया अमीर का बच्चा भी जवान होता है और ग़रीब का बच्चा भी जवान होता है |बताओ, सीधी नज़र से शिराओं धमनियों में गरमी फ़ैली थी या तिरछी नज़र से ? पर आदमी की दुनिया में सितारों से बिलकुल उल्टा होता है | – आदम और हव्वा की औलाद सीधी नज़र से “एक्टिव” तथा तिरछी नज़र से “हायपर एक्टिव” हो जाती है | बिहारी से लेकर मस्तराम तक के घोर लेखन में जिसे “बांकी चितवन” पुकारा गया है वो ही दरअसल “तिरछी नज़र” है | “तिरछी नज़र – सीधी नज़र” का सिद्धांत थोड़ा सा उलझा सा है पर इश्क का सहारा लो तो सहूलियत से समझ में आता है | अब इस इश्क को कुछ तानो कुछ फैलाओ तो यह इश्क-ए-मज़ाज़ी से इश्क-ए-वतन आगे इश्क-ए-हक़ीकी तक जा पहुंचता है | पर याद रखें ये सारा खेल तिरछी नज़र का ही होता है, जो कनखियों से शुरू होकर टेढ़ी नज़र पर टिकता है |

अब अभी हाल में ही वजीरे आज़म ने उस “कलूटी दौलत(ब्लेक मॅनी)” को कनखियों से निहारा, फिर इसकी कालिख उतारने के लिए नज़र तिरछी की, पहला तीरे-नज़र “नोट बंदी” का छोड़ा, अंजाम सामने है | राज की बात तो यह है कि तिरछी नज़र का दायरा बड़ा चौड़ा (वृहद्) होता है, सामने वाले  को समझ नहीं आता कि मामला क्या है ? ये नज़रे इनायत मोहब्बत की है या अदावत की ? क्यों कि तिरछी नज़र का सूत्र ही होता है-“कहीं पे निग़ाहें कहीं पे निशाना”| इस चौड़ेपन में अनंत संभावनाएं होती है, इस ताजे मामले में ही देखिये-  नोट बंदी से शुरू हुए, डीमोनिटाईजेशन (विमुद्रीकरण) की एक परिक्रमा लगाकर डिजिटलाईजेशन(डिजिटलीकरण) पर जा पहुंचें | अब गाँव का खेतीहर मजदूर टेक्नोसेवी डिजिटल रहेगा, अचम्भा काहे का ? जब लगान का लूला स्पीनबाज़ क्रिकेटर हो सकता है तो हमारे मजदूर के तो हाथ पाँव गरीबी सब सही सलामत है, वो भी शान से ठाठबाज डिजिटल बन सकता है |

आम मनुष्य की तिरछी नज़र भैंगापन कहलाती है पर बडे आदमी की तिरछी नज़र को भृकुटी भंग या नासिकाग्र दृष्टि होने का मान मिलता है | कोई बड़ा तभी बना रह सकता है जब छोटें अस्तित्व में बने रहे | इसलिए कतारों में एडियाँ घिस घिसकर हम छोटे बने रहते हैं पर अपने लोकतंत्रीय फ़र्ज़ से मुख नहीं मोड़ते, ई वी एम् (इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन) पर अंगुलियाँ रगड़ रगड़ कर बड़ा बनाने का काम भी करते रहते हैं | अक्सर हमारा बनाया बड़ा बाद में या तो कहीं पड़ा मिलता है या तो कहीं जड़ा पाया जाता है | अभी का बड़ा आड़ा नहीं हुआ, अड़ा है बराबर खड़ा है | और हमें भृकुटी भंग के अगले निशाने का इंतज़ार है |

हमारी मूढ़ मति के हिसाब से भारत में एक कारोबार है जो एक तरफ कुटीर उद्योग है तो दूसरी तरफ इजारेदार घरानों वाली कारपोरेट इंडस्ट्री भी | इसके प्रोडक्ट की रेंज पार्षद से प्रधान मंत्री तक है | आम जन इसे राजनीति उद्योग या सियासती कारोबार के नाम से जानता पहचानता है | यहाँ अकूत “श्याम सम्पदा उर्फ़ कलूटी दौलत” का वास है | इस तरफ तिरछी नज़र की इनायत अमीर उमरा और गरीब गुरबा के फर्क का फर्स्ट ऐड (प्राथमिक चिकित्सा) साबित हो सकती है |

तो मेरे प्यारे धरती और सूरज 14.75 करोड़ किलो मीटर इतना निकट आने के लिए बधाई, और 15.25 किलो मीटर की दूरी के दर्द में हम आप लोगों के साथ हैं, आपके अटूट प्रेम के लिए मंगल कामना करते हैं | यहाँ तो साधनहीन और साधनसम्पन्न के बीच इतना बड़ा फासला है कि वक़्त की किसी भी परिक्रमा पर कम नहीं होता कि ब्रम्हांड के किसी कोने से बधाई मिल सके | ना कोई मन्नत, नाकोई अनुष्ठान, ना कोई पञ्च वर्षीय योजना, ना कोई मंगल कामना जो इस दूरी को घटा पाती है |

मगर ये आदमी बहुत टेढ़ी चीज है, कभी निरुपाय नहीं होता, निराश नहीं होता |

“इंसान की तासीर का एक राज़ है गहरा,

मायूस नहीं होता मुसलसल करम करता है|

सितारों टेढ़े होकर तुम सर्द करों फिजाओं को,

यहाँ एक तिरछा ही पूरा माहौल गरम करता है |”

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