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लो प्रजातंत्र पर एक दूसरे को कहते सुनते हैं

सुनो दोस्तों
सुनो दोस्तों
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**लो प्रजातंत्र पर एक दूसरे को कहते सुनते हैं**
भई, एक दूसरे को बोलना सुनना ही ज्यादह सेफ है, वरना आजकल कुछ कहने से पहले देश भक्ति का एकाध सच्चा सा झूठा सा प्रमाण देना जरूरी माना जाने लगा है | इस बार अंदाज़ थोडा ठेठ रख रहा हूँ, क्षमा कीजियेगा |
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पिछले लेख और उनसे भी पिछले लेखों में देशी मिथक, देश के बाहर के विचार और कुछ अपनी सोच को मिलाकर जो लिखता रहा हूँ, उनमें यही आग्रह है कि हम वैचारिक स्तर पर अपने आप को प्रजातंत्र के अनुकूल बनाएं |
नई जेनेरेशन से संवाद की क्या भाषात्मक अभिव्यक्ति हो उसके लिए अपने भाव संसार में मैं खुद अपने व्यक्तिगत आन्दोलन चलाता रहता हूँ |
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एक बात बताओ दोस्तों ?
साकार और निराकार क्या होता है ?
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मेरे अपने समझ के हिसाब से ;-
1.साकार
प्राणी जो भी देखता है और जितना देख पाने के लिए कुदरत ने उसे सक्षम बनाया है, उसी के आधार पर वह कोई आकार या आकृति बना पाता है | उसकी कल्पना का भी एक दायरा होता है, जो समकालीन तकनीकी तथा वैचारिक सोचों से एवं उसके संपर्कों के दायरे से बंधा होता है | अपने परिमार्जित साधनों से वह छुपे हुए पर से आवरण हटाता जाता है और नया सामने आता रहता है |
2.निराकार
प्राणी जो नहीं देख पाता उसे निराकार की श्रेणी में डालते चलता है | नमूने के लिए हवा व प्रकाश पर हमने “निराकार” कहकर अपने बहुत से काल्पनिक आकार आरोपित किये हैं | जैसे जैसे नए उपकरण हम बनाते हैं , चीजों के आकार सामने आते जाते हैं | निराकार का श्रेष्ठ आदर्श उदाहरण हम शून्य को मानते हैं पर उस पर भी हमारा खालीपन का भाव आरोपित रहता है |
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– साकार तथा निराकार से हमारे सरोकार –

– *साकार की अनुभूति हमें एक आश्वस्ति, सुनिश्चितता का भाव देती है | दृश्य पर हम केन्द्रित हो पाते हैं | प्रेम और घृणा, सहमति और निषेध, पसंद और नापसंद सच और भ्रम तथा करना और नहीं करना के केंद्र स्पष्ट हो जाने का बोध हो जाता है |
*निराकार की अनुभूति हमारी आदिम पैदायशी उत्सुकता (जिज्ञासा) की मनोवृत्ति को बनाए रखती है | यह निराकार की कल्पना की ताक़त चीजों को आकार देने के लिए हमें व्यस्त रखती है |
** साकार – निराकार की अवधारणा के पीछे हमारी एक छटपटाहट काम करते हुए दिखाई देती है कि हम भाव को भी वस्तु में बदल लें, भाव के साथ भी वस्तु की तरह व्यवहार करे व अपने उपयोग में लायें |
*** यह साकार – निराकार का द्वन्द वस्तु से भाव पर प्रगति के इस दौर में आ टिका है | राष्ट्रीयता और राष्ट्र प्रेम के अंतर्संबंध में यह द्वन्द दिखाई दे रहा है |
**** साकार ईश्वर का स्मरण करें तो जो मंदिर आपने देखे हैं उनकी मूर्तियाँ, राजा रवि वर्मा के चित्र, कैलेण्डर की छवियाँ या अभिनेताओं के चेहरें सामने आते हैं | निराकार ईश्वर का ध्यान करें तो रोशनी की आकृतियाँ, किताबों में दिए योगियों, मनीषियों के शब्द बिम्ब सामने आ जाते हैं | ईश्वर को लेकर कौनसी बनावट आप तय करेंगें |
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मैंने अपने पिछले लेख का एक अंश जैसे का वैसा यहाँ ले लिया है :- “सार्वकालिक यानी नित्य , हमेशा सदा सर्वदा | अतीत और भविष्य मानव स्मृति तथा अनुमान के हिस्से हैं, समय से इनका कोई लेना देना नहीं है | यदि अतीत ना हो तो अनुमान भी अस्तित्व में नहीं आ पाता | जिस और जितना समय हमारी पहुँच(संवेदना और अनुभूति) में आ पाता है उसे हम वर्त्तमान मान लेते हैं | इस प्रकार वर्त्तमान दो प्रकार के हो गए, एक जो हमारी पहुँच में है तथा दूसरा हमारी पहुँच से बाहर | हमारी पहुँच के बाहर वाला वर्तमान ही स्वयं समय है जो नित्य है सार्वकालिक है |”
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मैंने दो तरह के वर्तमानों की बात की है – 1. वर्त्तमान पहुँच के अन्दर – यह वर्त्तमान नहीं तात्कालिकता है जो समय को अपने वश में करने की हठधर्मिता है |
2. वर्त्तमान पहुँच के बाहर – यह संप्रभु समय है | समय यह वर्त्तमान ही वर्त्तमान है | यह मनुष्य को नियंत्रित वियंत्रित नहीं करता | इसमें दर्ज ब्योरों से मनुष्य नतीजे निकाल सकता है , अपने भविष्य को अपने लिए अनुकूल वर्तमान में बदलने की सार्थक कोशिश कर सकता है |
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जो भारत के साथ हुआ :-
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1.समान आस्थाओं, समान विश्वासों, समान वैचारिकता के आधार पर भौगोलिक भिन्नता के बावजूद यह अपने आप में एक देश था | फिर विदेशियों के आक्रमण शुरू हुए पर वे तत्कालीन संस्कृति में घुल गए | यह समय स्मृतियों में उतना गहरा नहीं है |
2. फिर इस्लाम के अनुयायियों के हमले हुए, इन्होने विभाजित समाज का पूरा ताना बाना ध्वस्त कर दिया | अश्वमेधीय विजय तृष्णा, धर्म की हाँनि पर ईश्वर का अवतरण, अतीन्द्रीय शक्तियों से शत्रु का पराभव सब कुछ आख्यानों तक सीमित रह गया | ना बुद्धि को सहारा मिला ना बल को | इस पराभव और ग़ुलामी ने समाज के सारे तबकों को कुंठित कर दिया | यह कुंठा भाव आज भी कायम है | यह बीता हुआ समय नहीं आज देश का वर्त्तमान है |
3. पश्चिम से व्यापारी आये | उनके ग्राहक थे – हिन्दू तथा इस्लाम के पुरोधा | ढहती बादशाहत का थरथराता बादशाह | द्वेष और लालच के गिरफ्त में राजा और नवाब | जातियों में बंटी लाचार गरीबों की जमात | मेहनतकश हाथ की कारीगरी करने वाले कारीगर |पूरा देश पैबन्दों और चीथड़ों से बनी एक चादर जैसा, कोई चीथड़ा बड़ा कोई छोटा |उन व्यापारियों के देश में नए विचार थे, मशीनें थी, यहाँ महामारियां थें, अकाल थे | व्यापारियों ने जमकर लूटा |इन व्यापारियों ने सच में इस देश को हराया, समाज में बो दी एक हीन भावना |फिरंगी के देश में रहना,उनके बीच उठना बैठना एक सम्मानजनक बात है |
यह हीन भावना आज हमारा वर्त्तमान है |
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अब यहाँ रुकिए, थोडा आराम कीजिये, लेख लम्बा और बोरिंग होने के लिए लक्ष्मीकांत को कोसिये | पर अगली खालिस लक्ष्मीकान्ताना किस्सागोई को झेलिये |
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हम और हमारा समय
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बुरा मत मानना , कोई एक हिन्दू इस मुल्क का ऐसा सामने आये जिसके भीतर एक मुसलमान ना हो और कोई एक मुसलमान ऐसा सामने आये जिसके अन्दर एक हिन्दू ना हो | दूसरे भी किसी धर्म या मज़हब का बंदा हो क्या उसमें उसका धर्म छोड़कर कोई दूसरे धर्म नहीं हैं ? दरगाह पर जाने वाले हिन्दुओं और गुरुद्वारे में जाने वाले मुसलमानों से मैं रोज मिलता हूँ, जो मेरे साथी हैं |
चरण स्पर्श, गले मिलना, हाथ मिलाना आज नए भारत के पुरानी और नई पीढ़ियों के रिवाज़ हैं, कस्टम हैं |
आज जो हम स्वादिष्ट खाने की बात करते हैं, यह मुस्लिम पाक-विधियों का कमाल है | कृष्ण की लीलाओं का रस लेना चाहते हैं तो रसखान को पढ़े बिना कैसे छोड़ सकते हैं ? संगीत में गुरु शिष्य परंपरा के तागे ताबीजों में कैसे पता करोगे – कौन गुरु या कौन उस्ताद ? कौन शिष्य या कौन शागिर्द ? मैक्स मूलर ना होते तो संस्कृत आज कहाँ और कैसे होती ? ये फिरंगी न होते तो अजंता एलोरा कब तक ओझल रहती, ब्राम्ही लिपि के शिलालेख पत्थर पर खुरची लकीरों की मानिंद मौन पड़े रहते ?
दोहों में से रहीम को किस छन्ने से छानकर अलग करेंगें? नज्मों और अशआरों से फ़िराक और गुलज़ार साहब को जुदा कैसे करेंगें ? क्या त्रिलोचन शास्त्री “सॉनेट्स” लिखने से अभारतीय हो गए ? सलमान खान ‘’गणेश स्थापना’’ करके गुनाह कर रहे हैं ?
यूरोप की मशीन क्रान्ति सिर्फ पश्चिम तक सीमित नहीं रह सकी, समूची दुनिया में समा गयी है | जैसे आँखों का विस्तार खुर्दबीन और दूरबीन है वैसे मानव मस्तिष्क का विस्तार कम्प्यूटर है | डिजिटल दुनिया का हम हिस्सा है, यही हमारा समय है |
आज भारतीय मानसिकता या हिन्दुस्तानी जेहनियत या इन्डियन मेंटलिटी में वैदिक वाङ्गमयी धैर्य है तो मध्य एशियाई आक्रमकता भी है तो यूरोपीय सक्रियता भी है | अब इस मानसिकता को भंग करके श्रुति तथा किवदंतियों की शरण में जाकर सिर्फ बर्बरता हासिल हो सकती है जिसके दम पर आतंरिक कलह के नासूर तो मिल सकते हैं पर मानवीय उत्थान के सोपान नहीं |

बात समेटता हूँ , अपनी ही ग़ज़ल के शेरों की मदद से –
नये सवाल हैं कोई नई किताब लिखो |
कठिन हालात पर कोई नई किताब लिखो |
फ़िक्र जब आदमी को आदमी से दूर करें,
मौज और मस्ती पर कोई नई किताब लिखो |
परछाईयां ही घनी छाँव हुआ करती है ,
पेड़ के कद पर कोई नई किताब लिखो |
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