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हम कौन ?
बात बहुत क्या बहुत बहुत पुरानी है | कितनी पुरानी इसके लिए काल की गणना समझ लेना इस कहानी के हित में है |
कल्प हिन्दू काल चक्र की बहुत लम्बी मापन इकाई है। हिन्दू मानव वर्ष गणित के अनुसार ३६० दिन का एक दिव्य वर्ष होता है। इसी हिसाब से दिव्य १२००० वर्ष का एक चतुर्युगी होता है। ७१ चतुर्युगी का एक मन्वन्तर होता है और १४ मन्वन्तर का एक कल्प होता है। अतएव एक कल्प १००० चतुर्युगों के बराबर यानि चारअरब बत्तीस करोड़ (४,३२,००,००,०००) हिन्दू मानव वर्ष का हुआ |
बात कई कल्पों के पहले की है |
बात पुरानी होने के साथ गंभीर भी थी | क्षमा करें, गंभीर थी, यह बतलाने की आवश्यकता नहीं थी, क्यों कि पुरानी बात गंभीर ही होती है, इसके हम सब जानकार हैं |
हाहाकार मचमचाया था वैकुण्ठ उर्फ़ अमरावती में |
कुछ अप्सराओं कुछ देवताओं के चाल चलन में भारी फर्क आ गया था | किसी की ना सुन रहे थे, ना किसी की मान रहे थे |
अदब, कायदा, हिदायतें सब ताक पर |
सारे अमरापुरकर (अमरावती के नागरिक) त्रस्त |
आखिरकार समस्या देवेन्द्र तक पहुँची | बात की संवेदनशीलता और स्वर्ग के अमन चैन को प्राथमिकता देते हुए देवेन्द्र ने धर्मराज की अध्यक्षता में एक आयोग का ताबड़तोड़ गठन किया |
आयोग ने मामले की पूरे सन्दर्भों में जांच पड़ताल की तो पाया कि मर्ज के लक्षण किसी मनोरोग की भाँति है |
आनन फानन सुरगुरू बृहस्पति के साथ असामान्य अप्सराओं और देवताओं की परामर्श बैठक (काउंसलिंग) तय की गयी | सारी सलाह सारे मशविरे नाकाम रहें | उलटे मेनका, रति, कामदेव और चन्द्र ने गुरुदेव को सलाह दी कि वे नियमित कसरत करें ताकि उनकी झुकी झुकी देह तनी हुई लगे | उनके ज्ञान के अनुरूप तनी देह उनकी शोभा बन जायेगी, क्योंकि बल, ज्ञान, सुन्दरता या किसी भी अतिरिक्त विशेषता के साथ एक ठसक होना व्यक्तित्व को सम्पूर्ण बनाता है |
गुरुदेव बृहस्पति को इन रोगग्रस्त दिव्य विभूतियों की मानसिकता किसी अनजाने खतरे की घंटी की तरह लगी | धर्मराज के आयोग तथा बृहस्पति ने मिलकर मंत्रणा के बाद यह मामला वैद्यराज धन्वन्तरी के सपुर्द कर दिया |
आदि वैद्य धन्वन्तरी ने तुरंत उन देवताओं के सिर के पीछे रहने वाले दिव्य प्रभा मंडल के रश्मितरंग के कुछ गुच्छे प्रयोगशाला परीक्षण के लिए प्राप्त किये | गहन जांच के नतीजे अत्यंत चौँकाने और चेतावनी वाले थे |
उन अप्सराओं और देवताओं में किन्हीं अज्ञात सुक्ष्माणुओं का जन्म हो चुका था | ये विषाणुओं से भिन्न थे, क्योंकि विषाणु तो मात्र स्थूल रूपाकार (देह) को कमज़ोर करते हैं, बिगाड़ते हैं पर ये नए कण तो सीधे सीधे मानसिकता पर प्रहार कर उसे कुरूप बना रहे थे | इनमें खतरनाक संक्रमण के लक्षण सिद्ध हो चुके थे |
आदि वैद्य ने इन सुक्ष्माणुओं के पैदा होने का कारण खोज निकाला था | महानता को ऐयाशी की तरह भोगने से ये सुक्ष्माणु जनमते हैं | किसी अप्सरा या देवता को लेकर महानता का भाव जब तक प्रेक्षक के मन में है तब तक तो ठीक है किन्तु प्रेक्षक के पास से महानता उस आत्ममुग्ध अप्सरा या देवता के पास अपहृत होकर पहुँचती है और वह उस महानता को ऐयाशी की तरह भोगने लगता है तो ये सुक्ष्माणु प्रकट हो जाते हैं | इसकी घातक बात यह है कि बीमार को परपीड़ा यानि दूसरों को कष्ट पहुंचाने में बड़ा मजा आने लगता है | इस विकार को उन्होंने मनोरोग माना, नाम दिया – “अहंकार”|
इस सब के बावजूद धन्वन्तरी बुरी तरह हताश थे, वे कोई उपचार ना ढूंढ पाने के लिए शर्मिंदा अनुभव कर रहे थे, और लाचार भी | इस निराशाजनक परिस्थिति में देवेन्द्र तथा बृहस्पति से भेंट कर उन्हें त्रिदेव की शरण में जाने का अंतिम विकल्प बतलाया |
ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव ने ध्यानपूर्वक समस्या को सुना और समझा | त्रिदेवियों सरस्वती, लक्ष्मी तथा अम्बे से आदरपूर्वक मंत्रणा में शामिल होने के लिए स्तुति की |
ब्रह्मा, विष्णु, शिव, सरस्वती, लक्ष्मी, अम्बे, देवेन्द्र, बृहस्पति, धन्वन्तरी की गहन गंभीर विचार प्रक्रिया चली | निष्कर्ष और उपाय यूं निकले कि –
• ये सुक्ष्माणु आज से दर्पाणु (दर्प के अणु) कहलायेंगें |
• यह एक पागलपन है, मानसिक विकृति है, मनोरोग है | इसका वैद्यकीय नाम होगा- अहंकार, ममकार, सामान्य तौर पर घमण्ड, दर्प, गर्व, अभिमान, आदि |
• इसके लक्षण हैं – परपीड़ा और उन्मत्तता |
• स्वर्ग में रहने वाले अप्सरा और देवता अजन्मे होते हैं, इस रोग के दर्पाणु हटाने के लिए उन रोगियों को जन्म-मरण तथा अल्प जीवन के अनुभव से गुजारना ही एकमात्र इलाज है |
• इसके उपचार के लिए तथा संक्रमण से बचाव हेतु आनिवार्यत: अलग सलग स्थान की व्यवस्था जरूरी है, इस जगह का नाम होगा – “पागलखाना”| रोगियों में विशिष्ट पहचान के लिए इसे “पृथ्वी” कहकर संबोधित किया जा सकेगा |
• सावधानी रखी जाए, सतर्कता बरती जाए कि रोगियों को इस भेद का पता ना चल पाए |
बड़ी तेजी से इंतजाम हुआ | पागलखाने के लिए विशाल गेंदनुमा एक पिंड बनाया गया, तयशुदा तौर पर उसे “पृथ्वी” नाम ही दिया गया | तब से अब तक लगातार बिगड़ी अप्सराओं और बिगड़े देवताओं का स्वर्ग से निर्यात तथा सुधरी अप्सराओं और सुधरे देवताओं का स्वर्ग में आयात यहाँ से जारी है |
यह इलाज सौ फ़ीसदी कामयाब तो रहा पर एक नई ज़मात प्रकट हो गयी है, जो दूसरों को बिल्कुल नहीं सताती है पर खुद परेशान रहती है | परेशानी यही है कि साथ वाले दूसरों को ना सताये, इनके काम स्वर्ग के इलाज में मददगार भी साबित हो रहे हैं |
ब्रह्मा, विष्णु, शिव, सरस्वती, लक्ष्मी, अम्बे, देवेन्द्र, बृहस्पति, धन्वन्तरी फिर एक बार चिंता में पड़ गए हैं | इस जमात के काम उनकी उपचार विधि में कोई अड़चन नहीं डालते पर उनकी ठसक पूरी तौर पर निकलती भी नहीं, जिस कारण ये लोग स्वर्ग एक बार भी नहीं लौट पाए | इस ठसक को पृथ्वी पर वे अस्मिता कहकर पुकारते हैं , साथ वाले उन्हें साहित्यकार, वैज्ञानिक और दार्शनिक कहते हैं | ये लोग उस अस्मिता नाम की ठसक की वजह से हर परिवर्तन को बहुत ध्यान से देखते समझते हैं |
इधर पृथ्वी पर भी इस जमात को भी समझ आ गया कि वे लोग यहाँ की हवा के झोंके, पानी की तरावट और मिट्टी के लोंदे से बनी रचना नहीं है | पृथ्वी पर अपने लगातार बने होने के अनुभव से जान चुके हैं कि सिर्फ हवा, पानी और मिट्टी से मशीन बन सकती है, जिसमें ना तो घमण्ड होता है ना विनय |
उधर नौ अलौकिक विभूतियों को फ़िक्र हो गयी कि क्या ये जमात, संसार को एक दिन बता देगी कि हकीकत में वे लोग अप्सरा और देवता हैं, बिगड़े ही सही ?
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एक कथा ऐसी भी, टिप्पणियाँ जरूर करें |
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