आमतौर पर ऐसा माना जाता है कि पाश्चात्य देशों की अपेक्षा भारतीय लोग भावनात्मक तौर पर एक-दूसरे के साथ मजबूती के साथ जुड़े होते हैं. व्यक्ति के जीवन में पारिवारिक और आपसी संबंधों की घनिष्ठता उसे हर नकारात्मक परिस्थिति से ऊबारने में काफी हद तक सहायक सिद्ध होती है.
लेकिन क्या हमारे मस्तिष्क में व्याप्त ऐसी धारणा का कोई आधार है या मात्र परिवर्तित होते हालातों को नजरअंदाज करने के लिए हम बेवजह ऐसी मानसिकता का अनुसरण करते हैं?
हाल ही में विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा प्रायोजित एक अध्ययन पर नजर डालें तो यह साफ प्रमाणित हो जाता है कि अब भारतीय लोगों के जीवन में चिंता और अकेलापन इस कदर घर कर गया है कि धीरे-धीरे अधिकांश भारतीय अवसाद के अंधेरों में घिरते जा रहे हैं. इस शोध के नतीजे बेहद परेशान करने वाले हैं. इस शोध की स्थापनाओं की मानें तो दुनियाभर में भारतीय ही सबसे ज्यादा अवसाद ग्रस्त हैं. इतना ही नहीं कुल अवसाद ग्रस्त भारतीयों में से करीब 36% लोग मेजर डिप्रेसिव एपिसोड (एमडीई) से पीड़ित हैं. जिसका अर्थ है कि लगभग 36 प्रतिशत अवसाद ग्रसित लोगों की स्थिति गंभीर और चिंतनीय बन चुकी हैं.
डब्ल्यूएचओ के मेंटल हेल्थ सर्वे इनिशिएटिव द्वारा किए इस अध्ययन ने इस बात को प्रमाणित कर दिया है कि हमारा ऐसा मानना कि हम दुनियां के बाकी देशों से बेहतर और सुखपूर्ण जीवन व्यतीत कर रहे हैं, सरासर निरार्थक और बेमानी है. इसके विपरीत ज्यादातर अवसाद पीड़ितों की संख्या भारत में ही है. इसके बाद नीदरलैंड (33.6) फ्रांस और अमेरिका ने अपना स्थान लिया हुआ है.
सबसे हैरान करने वाली बात यह है कि धन, जिसके विषय में हम यह मानते हैं कि वह सारी परेशानियों को हल कर सकता है, अर्थात जिसके पास धन होता है वही सबसे ज्यादा खुश रहता है, बिल्कुल गलत है. यह रिपोर्ट स्पष्ट करती है कि गरीब देशों में अवसाद ग्रस्त लोगों की संख्या कम और धनवान देशों में इनकी संख्या बहुत ज्यादा है. इस सर्वे के मुताबिक सबसे ज्यादा कमाई करने वाले दस देशों में अवसाद का औसत 14.6 प्रतिशत है. जबकि मध्यम कमाई वाले देशों में यह दर 11.1 प्रतिशत है. लेकिन भारत में मेजर डिप्रेसिव एपिसोड (एमडीई) की दर 35.9 प्रतिशत है और चीन में बारह फीसदी है.
एक राहत की बात जो सामने आई है वो यह कि अन्य देशों की तुलना में भारतीय लोग युवावस्था गुजर जाने के बाद अवसाद ग्रस्त होते हैं जबकि कई देशों में छोटी सी आयु में ही लोग अवसाद की चपेट में आ जाते हैं. भारत में अवसाद की औसत आयु 31.9 साल, जबकि चीन में 18.8 साल और अमेरिका में 22.7 साल पाई गई है. भारत के संदर्भ में करीब नौ फीसदी लोगों में लंबी अवधि तक अवसाद के मामले पाए गए जबकि लगभग 36 फीसदी लोग एमडीई पीड़ित पाए गए.
उपरोक्त विवेचन के आधार पर यह स्पष्ट हो जाता है कि बदलती जीवनशैली ने मनुष्य को किस हद तक तनावग्रस्त बना दिया है. प्रतिस्पर्धा प्रधान युग में उसकी परेशानियां इस हद तक बढ़ चुकी हैं कि वह खुद को अकेला महसूस करने लगा है. जिसके परिणामस्वरूप वह धीरे-धीरे अवसाद की ओर अपने कदम बढ़ाता जा रहा है. परिवार और दोस्त जैसे करीबी संबंध जो नकारात्मक परिस्थितियों में भी साथ नहीं छोड़ते थे, अति-व्यस्त दिनचर्या के कारण वह भी पीछे छूटते जा रहे हैं. हम अपनी प्रगति और महत्वाकांक्षाओं को अहमियत देते हुए यह भूल जाते हैं कि वास्तविक खुशी अकेलेपन में नहीं एक-दूसरे के साथ में है.
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