आमतौर पर यह माना जाता है कि महिलाओं को तैयार होने में बहुत अधिक समय लगता है. वह अपने कपड़ों और मेक-अप को लेकर अधिक जागरुक और संवेदशील रहती हैं, इसीलिए सबसे ज्यादा आकर्षक दिखने के लालच में वह अपना अधिकांश समय तैयार होने में ही बिता देती हैं. परिवारों में भी अकसर देखा जाता है कि जब भी कहीं जाने की बात होती है तो घर की महिलाओं को जल्दी तैयार होने का निर्देश पहले ही जारी कर दिया जाता है. इसके विपरीत पुरुषों के विषय में तो ऐसा सोचा भी नहीं जाता कि वह तैयार होने में समय लगाएंगे. वह बहुत लापरवाह स्वभाव के होते हैं इसीलिए कुछ भी और कैसे भी कपड़े पहनकर वह जल्दी-जल्दी तैयार हो जाते हैं.
अगर आप भी पुरुषों के विषय में यही सोचते हैं कि वह अपने ऊपर ज्यादा ध्यान नहीं देते और ना ही वह अपनी साज-सज्जा को महत्व देते हैं तो एक नया अध्ययन आपको दोबारा सोचने के लिए विवश जरूर कर सकता है.
ट्रैवलॉज पत्रिका द्वारा हुए एक सर्वेक्षण के अनुसार एक औसत पुरुष दिन के लगभग 81 मिनट केवल खुद को तैयार करने में व्यतीत करता हैं वहीं एक महिला मात्र 75 मिनट ही इस कार्य में खर्च करती है.
टेलीग्राफ में प्रकाशित इस रिपोर्ट के अनुसार ऑफिस या कहीं बाहर जाते समय पुरुष खुद को आकर्षक दिखाने के लिए अपने चेहरे, बालों की स्टाइल और कपड़ों पर सबसे अधिक ध्यान देते हैं. इस काम में वह महिलाओं से भी अधिक समय लगा देते हैं. वहीं दूसरी ओर यही काम महिलाएं 75 मिनट में संपन्न कर लेती हैं.
उल्लेखनीय है कि पुरुष सिर्फ कपड़ों के चयन में ही 13 मिनट लगा देते हैं वहीं महिलाएं बस 10 मिनट में ही यह निर्णय कर लेती हैं कि उन्हें क्या कपड़े पहनने हैं. पुरुषों के दैनिक कार्यों में शेविंग, चेहरे की सफाई, बालों में जेल आदि सब कुछ शामिल होता है.
भले ही यह अध्ययन विदेशी महिलाओं और पुरुषों की दिनचर्या को केन्द्र में रखकर किया गया है लेकिन हम इस बात से इंकार नहीं कर सकते कि भारतीय पुरुष भी अब अपने बाहरी व्यक्तित्व और साज-सज्जा को लेकर जागरुक होने लगे हैं. प्राय: देखा जाता हैं कि वे, विशेषकर युवक तैयार होने में बहुत अधिक समय लगाते हैं.
जहां एक ओर यह खुद को लेकर उनकी जागरुकता दर्शाता है वहीं बाजारवाद भी उनकी मानसिकता पर पूरा प्रभाव छोड़ता है. पहले सौंदर्य प्रसाधनों पर सिर्फ महिलाओं का आधिपत्य हुआ करता था लेकिन आज हालात पूरी तरह बदल चुके हैं. आज पुरुषों के लिए भी बाजार में लगभग हर वो चीज उपलब्ध है जिसका उत्पादन पहले सिर्फ महिलाओं को ध्यान में रखकर ही किया जाता था. टी.वी. पर आने वाले विज्ञापन भी उन्हें यह सब खरीदने के लिए प्रेरित करते हैं. इन सब सामग्रियों का प्रयोग करते हुए इतना समय लगना तो स्वाभाविक ही है.
हालांकि सौंदर्य प्रसाधनों की बढ़ती मांग और इनकी स्वीकार्यता रोजगार के अवसरों को तो बढ़ाती है लेकिन उसके साथ ही भटकाव के हालात भी विकसित करती है. बात सिर्फ समय की बर्बादी तक ही सीमित रहती तो इसे व्यक्तिगत मसला मानकर नजरअंदाज किया जा सकता था लेकिन ऐसी परिस्थितियां आर्थिक पक्ष को भी समान रूप से प्रभावित कर रही हैं. हमारे देश में पहले से ही आय का वितरण असमान रूप से किया जाता है. ऐसे में फिजूल का खर्च और ज्यादा नुकसानदेह साबित हो सकता है. पुरुष ही नहीं महिलाओं को भी अपनी जरूरतों को नियंत्रित करने का प्रयत्न करना चाहिए ताकि आगे चलकर परिवार या समाज को किसी भी प्रकार की आर्थिक परेशानी का सामना ना करना पड़े.
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