पारिवारिक परिस्थितियां (Family conditions) और आस-पास का वातावरण, दोनों ही समान रूप से व्यक्ति के चरित्र निर्माण (Character Development) में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. खासतौर पर किसी बच्चे की मानसिकता (Mentality) इस बात से अधिक प्रभावित होती है कि माता-पिता और उसके बीच पारस्परिक संबंध (Mutual Relationship) कैसे हैं. हाल ही में हुआ एक शोध (Study) इस बात को प्रमाणित करता है कि जो अभिभावक अपने बच्चे के क्रियाकलापों पर नियमित रूप से नज़र रखते हैं, या ऐसी किसी भी गतिविधि में उसे भाग नहीं लेने देते, जिसकी वजह से बच्चे का चारित्रिक विकास गलत रूप से प्रभावित हो, वे अपने बच्चे को परोक्ष रूप से एक अच्छा सामाजिक नागरिक बनने के लिए प्रेरित करते हैं. परिणामस्वरूप उसका व्यक्तित्व निर्माण (Personality development) भी सकारात्मक दिशा में होता है.
वहीं दूसरी ओर, जो अभिभावक (Guardian) बच्चे के गलत आचरण (Bad Character) को हर बार उसका बचपना समझ नज़रअंदाज करते रहते हैं, वे जाने-अनजाने ही सही, अपने बच्चे के चारित्रिक विकास को तो नकारात्मक रूप से प्रभावित करते ही हैं. साथ ही उनका यह व्यवहार आगे चलकर समाज के लिए काफी घातक सिद्ध हो सकता है. माता-पिता द्वारा अपने बच्चों के प्रति ऐसा उपेक्षित (Neglected) व्यवहार रखने के परिणाम अब और अधिक गंभीर इसीलिए हो सकते हैं क्योंकि पहले की अपेक्षा अब वे अपने बच्चों के साथ अधिक समय बिताते हैं. ऐसे में बच्चों का उनके स्वभाव और उनकी इस उपेक्षित प्रवृत्ति से प्रभावित होने की आशंकाएं काफी हद तक बढ़ जाती हैं.
इस सर्वेक्षण को भारत की पारिवारिक सरंचना (Family Structure) से जोड़ कर देखा जाए तो कुछ समय पहले तक भारतीय परिवारों में माता-पिता और बच्चों के बीच संबंध वर्तमान की अपेक्षा काफी अलग थे. भले ही पहले अभिभावक अपने बच्चों के भविष्य़ को लेकर गंभीर थे, लेकिन उनके साथ एक औपचारिक (Formal) वार्ता रखते थे. पिता की छवि परिवार में एक सख्त और कठोर व्यक्ति की हुआ करती थी, जो अपने पूरे परिवार के लिए आजीविका कमा कर लाता था, जिससे उनकी सभी आर्थिक जरूरतें (Financial Needs) पूरी हुआ करती थीं. वहीं माता का काम केवल पारिवारिक सदस्यों का ध्यान रखना और बच्चों का भली प्रकार से पालन-पोषण करना होता था. लेकिन आज हालात बिल्कुल पलट चुके हैं, पारिवारिक परिस्थितियां पहले जैसी नियमित नही रहीं. आज माता-पिता बच्चों के साथ एक दोस्त के जैसा व्यवहार करते हैं. उनके साथ खेलते हैं, बाहर घूमने जाते हैं, साथ ही उन्हें भिन्न-भिन्न गतिविधियों में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित भी करते हैं. अभिभावकों के दायरे से बाहर निकल आज वे एक दोस्त की भांति अपने बच्चों के साथ एक खुशहाल समय व्यतीत करते हैं, जिससे दो पीढ़ियों के बीच की गहराई (Generation Gap) तो कम होती ही है, इसके अलावा दोनों एक-दूसरे को और अच्छी तरह समझ पाते हैं.
लेकिन इस बदलाव का दूसरा पहलू यह भी है कि अभिभावकों और बच्चों के पारस्परिक संबंधों (Mutual Relationship)में आते हुए परिवर्तन अभिभावकों को उनके मौलिक कर्तव्यों (Basic Duties) से दूर करते जा रहे हैं. बच्चों के दोस्त बनने की लालसा में वे माता-पिता के उत्तरदायित्वों को भूलते जा रहे हैं. बच्चों की हर जिद को पूरा करना, उनके गलत व्यवहार को हंसी में उड़ाना, कुछ ऐसे बर्ताव हैं, जो एक सीमा तक तो नज़रअंदाज (Ignore) किए जा सकते हैं. लेकिन माता-पिता जब बच्चे की खुशी के लिए अपने इस व्यवहार को बार-बार दोहराते हैं तो भले ही वे अपने बच्चों को कुछ समय के लिए खुशी दे रहे हों लेकिन वास्तविकता यह है कि वे जाने-अनजाने ही सही अपने बच्चों के भविष्य को अंधकार में धकेल रहे होते हैं.
आमतौर पर यह देखा गया है कि बच्चे, अपनी आदतों और स्वभाव में उन चीजों को जल्दी शामिल कर लेते हैं जो वे अपने माता-पिता से सीखते हैं. बच्चों के साथ दोस्त जैसा व्यवहार करने में कोई बुराई नहीं है, लेकिन माता-पिता का परम कर्तव्य अपने बच्चों में अच्छे संस्कार डालना होता है. बच्चों के विकास में अभिभावकों की इस भूमिका के महत्व को जानते हुए ही हमारे विधि शास्त्रों में भी परिवार को बच्चे के लिए आरंभिक विद्यालय (Initial School) का स्थान दिया गया है. अभिभावकों को चाहिए कि वे अपने बच्चे के दोस्त बनने से पहले उनके लिए एक कुशल अध्यापक (Teacher) बनें, जो बच्चों की गलतियों पर पर्दा नहीं डालते बल्कि उनके हर गलत व्यवहार पर उन्हें समझाते हैं और जरूरत पड़ने पर सख्त कदम भी उठाते हैं.
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